प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक के नाम से हिन्दी के पाठक भली प्रकार परिचित हैं । उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से 'भागवत-कथा' तथा 'महाभारत-सार' को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई है। 'भागवत-कथा' के तो अबतक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इन दोनों पुस्तकों की मांग लगातार बनी हुई है ।
हमें हर्ष है कि लेखक ने अब इस पुस्तक में महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण के आधार पर बड़ी ही सरल तथा सुबोध भाषा-शैली में राम की कथा दी है। पूरी पुस्तक इतनी सरस, इतनी रोचक और इतनी बोधप्रद है कि पाठक एक बार पढूगा आरंभ करने पर बिना समाप्त किये छोड़ नहीं सकता।
पुस्तक अत्यन्त मूल्यवान है, क्योंकि वह राम के मानवीय स्वरूप पर प्रकाश डालती है । हम उससे शिक्षा ग्रहण कर अपने चरित्र को ऊंचा उठा सकते हैं।
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सभी वर्गो के लिए सुपाठ्य है और उसे जो भी पढ़ेंगे, उन्हें लाभ ही होगा।
निवेदन
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण भारतीय साहित्य और संस्कृति की अस्प निधि है। यों तो भगवान श्रीराम के चरित्र का चित्रण भारत की सभी भाषा-उपभाषाओं में किया गया है, प्राय: सभी गणमान्य विद्वान कवियों ने रामचरित लिखकर अपनी लेखनी को धन्य किया है। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त ने लिखा है:
राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है ।
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।।
किन्तु श्रीरामचरित का इतना प्रचार-प्रसार होने पर भी आदिकवि वाल्मीकि की रामायण अपने आपमें स्व अनुपम कृति है, जिसका महत्त्व सदा ही अक्षुण्ण रहा है, भविष्य में भी रहेगा ।
भारतीय साहित्य में रामायण से पहले छन्दोबद्ध रूप में केवल वैदिक वाड्मय ही था । लोक में कोई भी पद्यमयी रचना देखने-सुनने में नहीं आई थी । महर्षि वाल्मीकि एक दिन प्रातःकाल के समय नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए नदी-तट पर गये थे । इस समय किसी व्याध ने क्रौंच के जोड़े में से एक पक्षी को अपने बाण से मारकर गिरा दिया । इस दृश्य को देखकर करुणार्द्र नयन महर्षि के मुख से स्वत: ही प्रकट हुआ:
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वतो : समा:
यत्क्रौंच-मिथुना देक न्यवथी: काममोहितम् ।।
अरे व्याध! तुम्हें अनन्त वषों तक कहीं शान्ति प्राप्त न हो, क्योंकि तुमने निर्दय होकर जोड़े में से एक पक्षी को बिना कारण मार गिराया है ।
वैदिक ऋचाओं के अध्ययन करने वाले ऋषि के मुख से अनायास ही अनुष्टुप छन्द का यह श्लोक आविर्भूत हुआ। बहुत विवेचन करने पर भी जब वे इस समस्या को नहीं सुलझा सके, तब देवर्षि नारद ने आकर उन्हें समझाया कि यह कविता है, जो भगवती सरस्वती की कृपा से सहसा आपके मुख से प्रकट हुई है। आपमें कवित्व की शक्ति है। आप इसका उपयोग कर संसार का कल्याण करें। यों कहकर उन्होंने संक्षेप में रामचरित का सौ श्लोकों में उपदेश किया, जिसे मूल रामायण के नाम से संस्कृत विद्वान जानते हैं।
महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद से निर्देश पाकर अपनी कवित्व-शक्ति से श्रीराम के पावन चरित्र का वर्णन किया, जिसमें कथा के साथ रमणीय अर्थ वाले ऐसे शब्दों का चयन किया, जो देखते ही बनता है । महाभारत इतिहास है, भागवत भक्ति का ग्रन्थ है, किन्तु रामायण आदिकाव्य है, काव्य के रस, अलंकार, गुण, रीति आदि सभी लक्षणों से सम्पन्न है, जिससे साहित्य के विद्वानों के हृदय में इसका बख्त सम्मान है। इसके ऋतु-वर्णन, चन्द्रोदयावर्णन आदि का चमत्कार मुक्त कण्ठ से स्वीकार करना पड़ता है। चरित्र-चित्रण के साथ-ही-साथ इसमें नीति-निरूपण का भी स्थान-स्थान पर सुन्दर निर्वाह किया गया है।
यों तो सभी काण्डों में इसकी प्रांजल भाषा, प्रसाद-गुण तथा अनूठे अलंकारों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है, परन्तु सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता अद्वितीय है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें स्वाभाविकता का पूर्ण साम्राज्य है। कहीं भी वर्णन में अस्वाभाविकता नहीं मालूम देती है, क्योंकि महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को सर्वगुण-सम्पन्न पुरुष के रूप में चित्रित किया है, गोस्वामी तुलसीदास की तरह भगवान के रूप में नहीं । इसलिए एम्स मनुष्य में जो भी गुण हो सकते हैं, उन सभी का समन्वय श्रीराम के चरित्र में आदिकवि ने दिखाया है, जिससे उनमें बहुत से विद्वान स्वयं ही भगवत का अध्यारोप कर लेते हैं । इस काव्य में उपमा, रूपक आदि अलंकारों का भी प्रयोग हृदयस्पर्शी है । जिस समय हनुमानजी ने लंका में सीताजी को देखा, उस समय की उपमाएं तो बहुत ही हृदयग्राही हैं यथा ''उस समय सीता संदिग्ध स्मृति, नष्ट हुई सिद्धि, टूटी हुई श्रद्धा, भग्न हुई आशा, कलुषित हुई बुद्धि और मिथ्या कलंक से प्रष्ट हुई कीर्ति के समान जान पड़ती थी। ''इस प्रकार की उपमाएं और अन्य रूपक आदि अलंकारों की छटा सभी स्थलों में देखी जा सकती है। शब्दालंकारों में अज्यानुप्रास (तुकान्त) का भी प्रयोग कहीं-कहीं अच्छा मिलता है। सुन्दरकाण्ड में चन्द्रोदय वर्णन में एक पूरा सर्ग ही द्याप्त से भरा हुआ है।
इतनी सब विशेषताएं होते हुए भी सर्व-साधारण में इसका बहुत कम प्रचार है। धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ही पण्डितों द्वारा इसका मूल पाठ कहीं-कहीं किया जाता है । प्रवचनों में भी इसका विशेष स्थान नहीं है।
इसलिए 'भागवत-कथा' और 'महाभारत-सार' की तरह वाल्मीकि-प्रणीत रामायण का भी सरल संक्षिप्त संस्करण हिन्दी में प्रस्तुत किया गया है। आशा है, सर्वसाधारण में इससे वाल्मीकि रामायण की जानकारी पड़ेगी।
भूमिका
भारत की कथा-परम्परा मे, रामकथा अनुपम है। भारत की सीमाओं को यह पार कर गयी है । सर्वोत्सुष्ट विश्वकथा का रूप रामकथा ने स्वत: धारण कर लिया है। इस महाकाव्य ने समस्त जन-हृदय को प्रभावित किया है। राजाजी (च राजगोपालाचारी) के शब्दों में ''रामायण के आधार पर आज हम जीवित हैं।'' उनके इस कथन में कोई सन्देह नहीं कि ''जबतक भारत-भूमि पर गंगा और कावेरी बहती रहेंगी, तबतक सीता-राम की कथा आबाल स्त्री-पुरुष सबमें प्रचलित रहेगी और हमारी जनता की रक्षा वह माता की तरह करती रहेगी।''
वाल्मीकि-रामायण को आदिकाव्य कहा जाता है और आर्षकाव्य भी। मानव-जीवन को सार्थक बनाने में इस उनूर्ठा रचना ने कुछ छोड़ा नर्हां है। राम को वाल्मीकि ने आदर्श मानवोत्तम माना है। नर में नारायण को उन्होंने देखा है। महर्षि वाल्मीकि का ऋण हमारे ऊपर इतना अधिक चढ़ा हुआ है कि उसे हम राम-कथा में तदाकार हुए बिना, चुका नहीं सकते। वाल्मीकि-रामायण का अनुसरण अन्य भाषाओं के महाकवियों ने भी किया कै। निश्चय ही संसार में रहते हुए भी संसार-सागर से पार उतार देने वाली यह कथा एक कम नौका है। इस अमर रचना के द्वारा एक ऐसा मार्ग प्रशस्त हुआ है, जो आत्मोत्सर्ग और आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य तक हमें पहुंचा देता है।
आज के समय ने हमारे जीवन में इतनी अधिक व्यस्तता पैदा कर दी है कि महान ग्रन्थों का समूर्ण अध्ययन हम कर नहीं पाते। चाहते हैं कि थोड़े में बहुत-कुछ पा जायें। मतलब यह कि लम्बी यात्रा का हम छोटा रास्ता निकाल लें। यह कठिन है, श्रमसाध्य है, पर असम्भव नहीं। कठिनाई सामने आ जाती है कि रत्न-सुमेरु में से किन और कैसे रत्नों को लिया जाये। संचय का लोभ कैसे संवरण किया जाये, यह प्रश्न उम्र जाता है। किन्तु ढाढ़स बंध जाता है यह देखकर कि सार-ग्रहण औरों ने भी तो किया है। राम-कृपा से तब सार निकालना संभव और सुगम हो जाता है।
कतिपय विद्वानों का मत है कि वाल्मीकि- रामायण का उत्तरकाण्ड बाद की रचना है, और कुछ विद्वान तो बालकाण्ड को भी प्रक्षिप्त मानते हैं। परन्तु इन काण्डों की कुछ कथाएं इतनी अधिक लोक-प्रचलित हो गयी हैं कि उनको छोड़ा नहीं जा सकता।
'वाल्मीकि-कृत रामकथा' हमारे सामने है। इसके लेखक श्री सूरजमल मोहता सार-ग्रहण की कला में अच्छी ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। कोरे लेखक न होकर वे सहृदय हैं और रामभक्त हैं। उनकी दो कृतियां 'भागवत-कथा' तथा 'महाभारतसार' लोकप्रिय हो गई हैं। मोहताजी द्वारा लिखित प्रस्तुत राम-कथा की शैली प्रवाहमयी है और भाषा भी मधुर तथा सरल है। आशा है कि यह कृति भी पाठकों का कण्ठहार बन पावेगी।
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