पुस्तक के विषय में
प्रस्तुत ग्रन्थ जिज्ञासुगण की जिज्ञासा तथा उसका समाधान रूप है। अगम पथ पर अग्रसर हो रहे साधक के अन्तरतम में अनेक जिज्ञासा का उदय होना स्वाभाविक है। यह जिज्ञासा शंका नहीं है। शंका को पृष्ठभूमि में विश्वास का तत्वत: अभाव होता है। इसी प्रकार प्रश्न का उदय तर्कबुद्धि के कारण होता है। जिज्ञासा में न तो शंकाजनित विश्वास की शिथिलता रहती है, न प्रश्नों की पृष्ठभूमि में स्थित तर्क बुद्धि के लिए ही वहाँ कोई स्थान है। जिज्ञासा शुद्ध विश्वास तथा आश्चर्य वृत्ति पर आधारित है। अगम तत्त्व को कोई आश्चर्य से देखता है, आश्चर्य से सुनता है और कोई उसे देख-सुन कर भी नहीं समझ पाता। ऐसी स्थिति में जिज्ञासा का उदय होता है। जिज्ञासु सत्-तर्क का आश्रय लेकर श्रद्धापूर्ण हृदय से पूर्ण विश्वास के साथ नतशिर होकर प्रातिभ प्रत्यक्ष ज्ञानसम्पन्न महापुरुष के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है। यही 'तत्त्वजिज्ञासा' की तथा समाधान के उपक्रम की रूपरेखा है।
इस जिज्ञासा का समाधान महापुरुषगण जिज्ञासु की स्थिति तथा उसके उत्कर्ष के तारतम्य से करते हैं। एक जिज्ञासु के प्रश्न का जो समाधान है, वही प्रश्न जब अन्य जिज्ञासु करता है तब उसमें कुछ समाधानजनित विभिन्नता हो जाती है। यह विभिन्नता अधिकारीभेद के कारण है। अत: अनुत्सन्धित्सु अध्येता को इस विभिन्नता में विषयवस्तु के प्रति अपनी समन्वयी मेधा का उपयोग करना आवश्यक है। विभिन्नता से व्यामोहित होकर विपरीत धारणा बना लेना उचित नहीं है।
शास्त्रों में भी शंका अथवा प्रश्न के स्थान पर जिज्ञासा को ही श्रेयस्कर माना गया है । 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा', ब्रह्म जिज्ञासितव्य है। जिज्ञासा बुद्धिजनित नहीं है। ब्रह्म को बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। उसको जानने के लिए अन्तरतम से, हृदय से जिस विकलता का उद्रेक होता है, वह है जिज्ञासा। यह बुद्धिजनित नहीं है। इसका उन्मेष होता है अन्तराकाश से, ब्रह्म के अधिष्ठान हृदय से जिसे उपनिषदों में दहराकाश की संज्ञा प्रदान की गयी है । विज्ञजन कहते हैं कि जब तक देहात्मबोध है, जीव स्वयं को परिच्छिन्न प्रमाता रूप से अनुभव करता है, तब तक यथार्थ जिज्ञासा हो ही नहीं सकती। परिच्छिन्न प्रमातृत्व रूप देहात्मबोध उच्छिन्न होते ही यथार्थ जिज्ञासा का उदय तथा उसके समाधानार्थ महापुरुप का संश्रयत्व प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। इस मणिकाञ्चन योग द्वारा ही तत्त्वबोध हो सकेगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन-जिन की जिज्ञासा प्रस्तुत है, उनका नामोल्लेख नहीं किया जा रहा है। उसका कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता। वे सब प्रकृत जिज्ञासु रूप साधक थे। उनका स्थूल शरीर तथा उससे जुड़ा उनका नाम, यह उन सबका वास्तविक परिचय नहीं है। उनका वास्तविक परिचय है उनकी जिज्ञासा, उनकी गम्भीर प्रतिभा तथा उनकी ग्रहण- क्षमता। इस त्रिवेणी के सम्मिलन से ही यथार्थ जिज्ञासा का उदय तथा उसका समाधान साधित होता है। संक्षेप में गोस्वामीजी के शब्दों में ''श्रोता वक्ता ज्ञाननिधि'' की उक्ति यहाँ अक्षरश: प्रतिफलित होती है। वास्तव में जाड्यतम के उच्छिन्न हो जाने पर जिस जिज्ञासा का उदय होता है, वही है यथार्थ जिज्ञासा। ऐसी जिज्ञासा का उदय हो जाने पर पारमेश्वरी कृपा से उसके उचित समाधान के माध्यम रूप महापुरुष का संश्रयत्व स्वत: प्राप्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में इससे अधिक उन जिज्ञासुगण का परिचय क्या हो सकता है?
कपिल-कणाद-व्यास-व शिष्ठ-गौतम आदि तत्त्ववेत्ताओं की परम्परा में ऋषिकल्प कविराजजी का भी नाम लेना उचित ही है। उनके द्वारा प्रदत्त समाधान प्रत्यक्ष पर आधारित है, वह जिज्ञासु के लिए शक्तिपात जैसा प्रभावशाली है। इस समाधान की प्रत्येक पंक्ति में जो शब्द हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभूति से शक्तिकृत हैं। इसलिए इनका प्रभाव क्षणस्थायी नहीं है । मनन-चिन्तन से इनका क्रमश: अभिनव स्वरूप परिलक्षित होने लगता है। ये जीवन्त शब्द हैं । यहाँ शब्द- अर्थ में सम्पूक्तता है, भेद नहीं है। इस शब्दचिन्तना से कालान्तर में उसके अर्थ का भी प्रस्फुटन होने लगता है। अवश्य यह कालसापेक्ष है। मनन इसका सेतु है । शब्द- अर्थ के बीच का सेतु। मनन ही मन्त्र है। जो जितना मनन करेगा, उसे उतनी ही विलक्षण अर्थत्व की प्राप्ति होगी। यही महापुरुष की वाणी का वरदान है।
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इस तप:पूत वाणी के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन के अधिष्ठातागण ने जिस तत्परता तथा मनोयोग का अनुष्ठान किया है, वह इन महापुरुष ऋषिकल्प कविराजजी के प्रति उनकी श्रद्धा का परिचायक है।
पुस्तक के विषय में
प्रस्तुत ग्रन्थ जिज्ञासुगण की जिज्ञासा तथा उसका समाधान रूप है। अगम पथ पर अग्रसर हो रहे साधक के अन्तरतम में अनेक जिज्ञासा का उदय होना स्वाभाविक है। यह जिज्ञासा शंका नहीं है। शंका को पृष्ठभूमि में विश्वास का तत्वत: अभाव होता है। इसी प्रकार प्रश्न का उदय तर्कबुद्धि के कारण होता है। जिज्ञासा में न तो शंकाजनित विश्वास की शिथिलता रहती है, न प्रश्नों की पृष्ठभूमि में स्थित तर्क बुद्धि के लिए ही वहाँ कोई स्थान है। जिज्ञासा शुद्ध विश्वास तथा आश्चर्य वृत्ति पर आधारित है। अगम तत्त्व को कोई आश्चर्य से देखता है, आश्चर्य से सुनता है और कोई उसे देख-सुन कर भी नहीं समझ पाता। ऐसी स्थिति में जिज्ञासा का उदय होता है। जिज्ञासु सत्-तर्क का आश्रय लेकर श्रद्धापूर्ण हृदय से पूर्ण विश्वास के साथ नतशिर होकर प्रातिभ प्रत्यक्ष ज्ञानसम्पन्न महापुरुष के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है। यही 'तत्त्वजिज्ञासा' की तथा समाधान के उपक्रम की रूपरेखा है।
इस जिज्ञासा का समाधान महापुरुषगण जिज्ञासु की स्थिति तथा उसके उत्कर्ष के तारतम्य से करते हैं। एक जिज्ञासु के प्रश्न का जो समाधान है, वही प्रश्न जब अन्य जिज्ञासु करता है तब उसमें कुछ समाधानजनित विभिन्नता हो जाती है। यह विभिन्नता अधिकारीभेद के कारण है। अत: अनुत्सन्धित्सु अध्येता को इस विभिन्नता में विषयवस्तु के प्रति अपनी समन्वयी मेधा का उपयोग करना आवश्यक है। विभिन्नता से व्यामोहित होकर विपरीत धारणा बना लेना उचित नहीं है।
शास्त्रों में भी शंका अथवा प्रश्न के स्थान पर जिज्ञासा को ही श्रेयस्कर माना गया है । 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा', ब्रह्म जिज्ञासितव्य है। जिज्ञासा बुद्धिजनित नहीं है। ब्रह्म को बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। उसको जानने के लिए अन्तरतम से, हृदय से जिस विकलता का उद्रेक होता है, वह है जिज्ञासा। यह बुद्धिजनित नहीं है। इसका उन्मेष होता है अन्तराकाश से, ब्रह्म के अधिष्ठान हृदय से जिसे उपनिषदों में दहराकाश की संज्ञा प्रदान की गयी है । विज्ञजन कहते हैं कि जब तक देहात्मबोध है, जीव स्वयं को परिच्छिन्न प्रमाता रूप से अनुभव करता है, तब तक यथार्थ जिज्ञासा हो ही नहीं सकती। परिच्छिन्न प्रमातृत्व रूप देहात्मबोध उच्छिन्न होते ही यथार्थ जिज्ञासा का उदय तथा उसके समाधानार्थ महापुरुप का संश्रयत्व प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। इस मणिकाञ्चन योग द्वारा ही तत्त्वबोध हो सकेगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन-जिन की जिज्ञासा प्रस्तुत है, उनका नामोल्लेख नहीं किया जा रहा है। उसका कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता। वे सब प्रकृत जिज्ञासु रूप साधक थे। उनका स्थूल शरीर तथा उससे जुड़ा उनका नाम, यह उन सबका वास्तविक परिचय नहीं है। उनका वास्तविक परिचय है उनकी जिज्ञासा, उनकी गम्भीर प्रतिभा तथा उनकी ग्रहण- क्षमता। इस त्रिवेणी के सम्मिलन से ही यथार्थ जिज्ञासा का उदय तथा उसका समाधान साधित होता है। संक्षेप में गोस्वामीजी के शब्दों में ''श्रोता वक्ता ज्ञाननिधि'' की उक्ति यहाँ अक्षरश: प्रतिफलित होती है। वास्तव में जाड्यतम के उच्छिन्न हो जाने पर जिस जिज्ञासा का उदय होता है, वही है यथार्थ जिज्ञासा। ऐसी जिज्ञासा का उदय हो जाने पर पारमेश्वरी कृपा से उसके उचित समाधान के माध्यम रूप महापुरुष का संश्रयत्व स्वत: प्राप्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में इससे अधिक उन जिज्ञासुगण का परिचय क्या हो सकता है?
कपिल-कणाद-व्यास-व शिष्ठ-गौतम आदि तत्त्ववेत्ताओं की परम्परा में ऋषिकल्प कविराजजी का भी नाम लेना उचित ही है। उनके द्वारा प्रदत्त समाधान प्रत्यक्ष पर आधारित है, वह जिज्ञासु के लिए शक्तिपात जैसा प्रभावशाली है। इस समाधान की प्रत्येक पंक्ति में जो शब्द हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभूति से शक्तिकृत हैं। इसलिए इनका प्रभाव क्षणस्थायी नहीं है । मनन-चिन्तन से इनका क्रमश: अभिनव स्वरूप परिलक्षित होने लगता है। ये जीवन्त शब्द हैं । यहाँ शब्द- अर्थ में सम्पूक्तता है, भेद नहीं है। इस शब्दचिन्तना से कालान्तर में उसके अर्थ का भी प्रस्फुटन होने लगता है। अवश्य यह कालसापेक्ष है। मनन इसका सेतु है । शब्द- अर्थ के बीच का सेतु। मनन ही मन्त्र है। जो जितना मनन करेगा, उसे उतनी ही विलक्षण अर्थत्व की प्राप्ति होगी। यही महापुरुष की वाणी का वरदान है।
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इस तप:पूत वाणी के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन के अधिष्ठातागण ने जिस तत्परता तथा मनोयोग का अनुष्ठान किया है, वह इन महापुरुष ऋषिकल्प कविराजजी के प्रति उनकी श्रद्धा का परिचायक है।