सम्पादकीय
जीवन
के लक्ष्य अखंड
आनंद की प्राप्ति
के लिए मन,
वचन और कर्म
से भगवान् की भक्ति
आवश्यक है भगवान्
के प्रति अनन्य
प्रेम तथा समर्पण
की भावना को ही
भक्ति कहते हैं
भक्ति नौ प्रकार
की बताई गई है, जिसमें से
भगवान् के गुणों
का गान (कीर्तन)
सहज और श्रेष्ठ
है गान के अधिक
संवेदनशील होने
पर माधुर्य भाव
अथवा सत्व का उद्रौक
होता है न् सत्तवोद्रेक
से चित्त क्रमश
शांत होता है और
विराम उत्पन्न
होता है । ऐसे विराग
के अनुकूल राग
हो, राग के
अनुकूल छंद हो, छंद के अनुकूल
शब्द हों और शब्दों
के अनुकूल लय हो, तो मन का अखंड
लय (समाधि) होता है।
भगवान
का प्रत्येक नाम
एक मन्त्र है स्वर
और लय के आधार से
मंत्र की शब्द
या चेतन शक्ति
जाग्रत रहती है
वल्लभ, चैतन्य,
हर, मीराँ,
तुलसी, पुरंदरदास, त्यागराज, तुकाराम, नरसी,
गोरख,
हरिदास जयदेव, विद्यापति, धर्मदास, नानक,
मलूकदास, रैदास, पलटूदास, राह सुन्दरदास, चरनदास, सहजोबाई, दयाबाई इत्यादि
संत भक्तो ने स्वर
और शब्द की चेतन
शक्ति से ते भगवान्
का अनन्य प्रेम
उपलब्ध किया तथा
जगत को सत्य का
संदेश दिया।
आलवार सतों नाम सर्कीर्नत की भक्ति धारा से दक्षिण भारत को रससिक्त करके उत्तर को भी उश्रसे आप्लावित किश इन संतो की परम्परा में ही रामानुजाचार्य हूए। उत्तर भारत में रामानुजाचार्य की परम्परा को पोषित करनेवाले स्वामी रामानन्द (सन् १४०० ई० के लगभग) हुए, जिन्होंने भक्ति के क्षेत्र में भेद की दीवारों को समाप्त करके, तमाम के प्रत्येक वर्ग के लिए उसे सेव्य बना दिया। मानव हृदय को केवल आनन्द प्रदान करनेवाला काव्य इन भक्त कवियों को अभीष्ट नहीं था उन सभी के समक्ष एक ही लक्ष्य था और वह भक्ति काव्य के माध्यम से जन कल्याण।
ईसा की १४ वीं शताब्दी से १९ वीं शताब्दी तक का आम भक्ति साहित्य की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है इस काम में भक्ति आंदोलन अपने चरम उत्कर्ष पर था और इसी समय निर्गुण संत भक्ति, प्रेममार्गी सूफ़ी भक्ति, प्रेमलक्षणा कृष्ण भक्ति तथा मर्दादामार्गी राम भक्ति की प्रेरणा से हो हिन्दी के सर्वोच्च साहित्य का निमार्ण हुआ, जिसके प्रभावस्वरूप शिल्प, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं को भी पूर्ण विकसित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस काल को भक्ति काल कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति नहीं, इस काल के भक्त गायकों द्वारा प्रसारित जीवन के मूल्य और मर्यादाएँ आज तक लोक में प्रतिष्ठित है, कयोंकि सभी संत गायक समान रूप से सांसारिक भोग विलास को हेय और त्याज्य दृष्टि से देखते हैं मिथ्या वैभव, पाखंड, तथा अत्याचारी प्रवृत्ति को निंदा की दृष्टि से देखते हैं और जीवन के सात्विकरूप, शास्त्रीय मर्यादाओं के पालन, जीव वाथ के प्रति दया तथा प्रेम को प्रवृत्ति को अपनाने पर चल देते हैं ताकि मानव की प्रसुप्त क्रियात्मक शक्तियों का जागरण होकर अक्षय सुख और शांति को अभिवृद्धि हो।
सत्य, मूल तत्त्व
या भगवान् का साक्षात्कार
करने की प्रवृत्ति
मनुष्य की प्रकृति
में प्रारम्भ से
ही किसी न किसी
रूप में विद्यमान
रही है इसी प्रवृत्ति
का अभिव्यक्ति
सभ्यता के सभी
स्तरों,
देशों तथा
कालों में होती
रही है और इसी का
नाम भक्ति है।
यज्ञ प्रधान ब्राह्मण
धर्म, की
प्रतिक्रियास्वरूप
भागवत धर्म का
उदय हुआ,
जिससे भारतीय
भक्ति साहित्य
को पोषण प्राप्त
हुआ कृष्ण वैदिक
देवता विष्णु के
अवतार माने गए, अतः भागवत
एवं बाह्मण धर्म
के समन्वय से वैष्णव
धर्म की उत्पत्ति
हुई । ईसवीं सन्
के प्रारम्भ से
राम भी विष्णु
के अवतार के रूप
में स्वीकृत होने
लगे।, परन्तु
राम भक्ति की विशेष
अभिवयक्ति ग्यारहवीं
शताब्दी के भाव
ही विशेष रूप से
हुई । विदेशो में
राम भक्ति का प्रचार
सर्वप्रथम बौद्धों
के द्वारा हुआ
।
कृष्ण भक्ति के जिस रूप ने समस्त भारत को रसमग्न किया, उसका मुख्य केन्द्र वृंदावन रहा, जिसने कई शताब्दियों तक चित्रकार, कवि, नर्तक तथा संगीतकारों को भी प्रेरणा प्रदान की । मनुष्य को सौंदर्य वृत्ति को परिष्कृत तथा सार्थक बनाने में भक्ति काव्य का प्रमुख हाथ रहा ।
भक्तिपरक काव्य को ही भजन कहते हैं छंद और स्वर की दृष्टि से भक्ति गीत के लिए कोई बन्धन नहीं है, फिर भी गेय पद स्वर, राग एवं ताल से विभूषित होकर जब प्रस्तुत किए जाते हैं, तो उनसे रस की जो अजस्त्र धारा बहती है, वह अनिवंचनीय होती है । भक्ति पद में इष्ट के रूप और गुण का कीर्तन होता है कीर्तन सगुण और निर्गुण दोनों उपा सनाओं के लिए आलम्बन रहा है वल्लभ संप्रदाय ने भक्ति गीतों के स्थान पर कीर्तन को अधिक महत्त्व दिया, क्योंकि शिक्षित तथा अशिक्षित, किसी भी वर्ग के कितने भी विस्तृत समुदाय के लिए उसमें भाग लेना संभव है । पद के शुद्ध उचारण, राग एवं ताल इत्यादि में पारंगत होना कीर्तनकार के लिए आवश्यक नहीं । वहाँ सरल स्वरोच्चार तथा समर्पण की भावना से ही व्यक्ति को परम संतोष हो जाता है, क्योंकि उसका लक्ष्य इष्ट के साथ तदाकारिता एवं तद्रू पता अमूर्त और स्वयंभू लय तत्त्व की संभरण शक्ति के माध्यम ले कीर्तनकार के भाव स्वत उद्दीप्त होते रहते हैं परंतु भावना विस्तार के लिए भक्तिपरक शब्दों को संगीतजोवी होना आवश्यक है । इसीलिए मीरा, सूर, और तुलसी इत्यादि ने अपने भक्ति काव्य को साहित्य तथा संगीत की दृष्टि से पूर्ण व्यवस्था दी । सामान्य जीवन से उठकर उनकी रचनाएं शास्त्रीय संगीत तथा भाषा साहित्य तक को समृद्ध करने लगीं ।
भक्ति गान में सहज उद्रेक, नवोन्मेष सद्य स्फूर्ति, स्वच्छन्दता तथा अनाडम्बर इत्यादि विशेषताएं स्वय आ जाती हैं। भक्ति भाव को उद्दीप्त करनेवाली प्रस प्रेरणा उसमें निरंतर व्यक्त रहती है और उसी के द्वारा भाव का विस्तार नियंत्रित होता है । मूर्त के अन्दर जो अमूर्त एकरसता और सौंदर्य विद्यमान है, भक्ति गान के द्वारा कलाकार उसे उद्घाटित कर सकता है । भारत को कीर्तन प्रणाली से आज का पाश्चात्य युवा वर्ग भी आकर्षित होता जा रहा है इसीलिए यूरोप ओर अमेरिका की सड़कों पर हरे राम, हरे राम, राम,राम, हरे हरे तथा हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे का गूंज बढ़ती जा रही है । पाश्चात्य कलाविदों एवं दार्शनिकों का कहना है कि भारतीय कीर्तन किलो भी दर्शन ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता, वह समय और समष्टिगत अनुभव है इस दृष्टि से कीर्तन मनुष्य की विशुद्ध ओर चरमतर संवेदना है ।
गीत को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थो का साधन बताया गया है । भक्ति गीत प्रेय के द्वारा श्रेय की उपलब्धि कराने ने अद्वितीय हे भक्तिपरक पद या विष्णुपद शास्त्रीय सगीत की ध्रुवपद पद्धति के जनक हैं इससे पूर्व स्तोत्र या स्तोत्र गान ( ईश्वरपरक स्तुति गान) ने प्रबंध गान को पृष्ट किया था । इन सबका आदि रूप साथ गान वस्तुत स्तोत्र पाठ का ही गेय रूप या । छादोग्य उपनिषद (१ ।१ । २) में कहा गया है वाच ऋग् रस, ऋच साम रस, साम्न उद्गीथो रस ।। अर्थात्, वाक का रस ऋक् (काव्य) है, ऋक् का रस साम (षड्स और मध्यमग्राम के अन्तर्गत गाया जाने वाला तथा शब्द और स्वर की समरसता उत्पन्न करने वाला) है, साम का रस उद्गीथ (प्रणच धोष) है । तात्पर्य यही है कि नाद के बाह्मा रूप का चेतना के साम ऐक्य स्थापित हो, जो आज भो भक्तिगान के माध्यम से सुबोध है ।
साम की पंचविध और सप्तविध उपासनाओं का उल्लेख मिलता है, जो विभिन्न देवताओं की दृष्टि से पृथक् पृथक् थी छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार प्रजापति का उद्गीथ अनिरुक्त, सोम का निरुक्त, वायु का मृदुल और श्लक्ष्ण, इन्द्र का श्लक्ष्ण और बलवान्, बृहस्पति का क्रौंच समान और वरुण का अपध्वांत है देशी गान में उपासना के यही रूप विभिन्न जातियों और प्रबन्ध प्रकारों के रूप में प्रचलित हुए तथा लौकिक गान में जाति वर्ण और पंथ भेद से इनका रूप आज भी मन्दिर तथा ग्राम्य जीवन में सुरक्षित है इस प्रकार वर्तमान भक्ति गान की मूल प्रेरणा वेद मे निहित है और वेद ब्रह्मवाद के समर्थक हैं ।
ब्रह्मावाद के सगुण और निर्गुण रूप ने ही भक्ति के विभिन्न सम्प्रदायों को जन्म दिया हे १२ वीं शताब्दी से १६ वीं शतान्दी तक संत काव्य का जो रूप मिलता है उसमे सम्प्रदाय अधिक नहीं, परन्तु ईसवी सन् को १६ वी शताब्दी से १८ वीं शताब्दी के मध्य काल तक पथ और सम्प्रदायों का निरन्तर प्रसार होता रहा, परिणामस्वरूप विपुल भक्ति साहित्य अस्तित्व में आ गया सन्त साहित्य के इतिहास का आधुनिक युग १९ वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है ।
समस्त सन्त काव्य का प्रधान विषय धार्मिक तथा दार्शनिक ही रहा है । गीता में भक्त और भक्ति, दोनों को विशेष महत्ता प्रदान की गई है श्रुति ने कहा है कि देवताओं के स्वामी विष्णु साथ गान द्वारा जितनी जल्दी प्रसन्न होते हैं, वैसे यज्ञ दानादि द्वारा भी नहीं होते । पूजा से करोड़ गुना श्रेष्ठ स्तोत्र होता है, स्तोत्र से करोड़ गुना श्रेष्ठ जप और जप से करोड़ गुना श्रेष्ठ गान होता है, गान से परे कुछ नहीं तात्पर्य यही है कि सस्वर भक्ति ही सर्वोकृष्ट और शीघ्रफल प्रदान करने वाली है भक्ति गान के द्वारा आहत नाद की सिद्धि होकर अनाहत की उपलब्धि सरलता से होती है, जिससे साधक जीवन मुक्ति आ लाभ प्राप्त करता है ।
चैतन्य सम्प्रदाय के अनुयायी रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत सिंधु तथा उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस की प्रतिष्ठा की है और भक्ति रतामृत सिधु में उसके मुख्य तथा गौण भेदों के । अन्तर्गत अन्य सभी रसों को ले आने का प्रयत्न किया है । मधुसूदन सरस्वती के भक्ति रसायन ग्रन्थ में भक्ति के अलौकिक महत्व का निरूपण करते हुए उसे दसवाँ रस बताया गया है तथा अन्य सभी रसों से उसे श्रेष्ठ माना है । भक्तिरस की महत्ता तथा उसका स्वरूप भागवत में स्थान स्थान पर व्यक्त किया गया है नारद भक्तिसूत्र में भक्ति को परमप्रेमरूपा कहा गया है । वास्तव में भक्ति रस ऐसी आनन्दमयीचेतना है, जिसके अंश मात्र की उपलब्धि से ही अन्त करण को स्फूर्ति मिलती है और वह जीवित रहता है । तैत्तिरीयउपनिषद मे जगत के समस्त पदार्थो का कारण, आधार और लय आनन्द बताया गया हे द्वैत ने दुख है और एकत्व मे आनन्द । यह आनन्द ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है, जो भक्ति के माध्यम से शीघ्र अनुभूत होता है । हिन्दी के समस्त सन्त साहित्य और भक्ति साहित्य में आनन्द की अखण्ड रूप से उपलव्धि का माध्यम भक्ति सगीत बताया गया है इस अखंड आनन्द को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा ही जीवन के विविध क्षेत्रों में पथ प्रदर्शिका बनती है। इसी लिए सभी सन्तों और भक्तों ने भक्ति को मुख्य रस माना है तथा अन्य सभी रसों को भक्ति का अवांतर रूप का है ।
भाषा की अपेक्षा नाद का प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक होने से तथा भक्तिपरक शब्दों को सस्वर प्रस्तुत करने से, बच्चों से लेकर वृद्धों तक पर उसका प्रभाव पडता है मन्दिरों में भगवान की आरती के समय जब एक साथ शख, घड़ियाल और घन्टों का निनाद गूँजता है, तो तिर्यक् योनि के प्राणी (विशैष रूव से) स्वान तक उससे प्रभावित होकर दीर्घ स्वरोच्चारण करते हुए अपनी ध्वनि कौ दिव्य नाद के साथ एकाकार करने का प्रयत्न करने देखे जाते है ।
भक्ति काव्य के आदि, मध्य तथा अन्त में सार, हरिपद, चौपाई, चौपई, दोहा, सरसी, गीता, मुक्तामणि, श्यामउल्लास, श्लोक, छप्पप तथा शेर इत्यादि प्राय रहते है भक्ति काव्यों के कुछ प्रकार ऐसे भी प्रचार में आए हँ, जिन्हें लोक धुनों का आश्रय प्राप्त हो जाने से वे साधारण जीवन और हिन्दू सस्कृति का अग मन गए है । दैनिक जीवन में राग द्वेष तथा हर्ष शोक के भाव प्राय जिती नकिसी क्षण में आते ही रहते हैं, जिनसे मानव चित्त विचलित होता रहता हे इस अवस्था से मुक्ति पाने के लिए भक्ति गान और भक्ति मृत्य से बढकर दूसरा कोई सरल उपाय नहीं है द्वारिका महात्म्य मे लिखा है कि जो प्रसन्न चित्त से, श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भावों सहित मृत्य करते हैं, वे जन्मांन्तरो के पापों मे मुक्त हो जाते हैं ।
भक्ति गीत पवित्र, वंदनीय तथा अलौकिक शक्ति सम्पन्न होते है । भक्ति काव्य में सत्य, शिव और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय है । परम तृप्ति के साथ साथ उसपे परम आह्लाद भी है । भक्ति गाम से वृत्ति जब ध्येयाकार होती है, तो चित्त का आवरण हटता है, मल और विक्षेप समाप्त होते हैं, ज्ञान की प्रकृष्ट दीप्ति होकर आत्म ब्योलि उद्भासित हो उठती है । कथाकार वे माधुर्य और सत्यं का वैभव उपलबध होता है। सत्य से उद्रेक से तार्किक बुद्धि तिरोहित होकर चेतन के साथ तद्रूप होती है ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी एक हो जाती है, अनेकता से एकता का बोध होता है और तुरीय पद प्राप्त होता है । यही वह पुण्य भूमि है, जहाँ समस्त पाप दग्ध हो नाते है । सूर जैसा भाव, मीराँ जैसा प्रेम और तुलसी जैसी श्रद्धा रखकर भक्ति सगीत प्रस्तुत किया जाए तो मनुष्य का जीवन सफल हो जाए। आज से अट्ठाईस वर्ष पूर्व सन १९४२ में हमने संगीत व एक विशेषाक भजन अंक और सन् १९४८ में संत संगीत अक प्रकाशित किया था तथा अब महात्मा गांधी जैसे विश्व प्रसिद्ध भक्त के जन्मशताब्दी समारोह वर्ष के सुअवसर पर भक्ति संगीत लक समर्पित कर रहे हैं । भक्त पाठकों को भक्ति रस भे अवगाहन करने का अवसर देकर हम अपने को कृतकृत्य अनुभव कर रहे है । संमार के समस्त सन्त और भक्तों के चरणों में हमारा बारंबार प्रणाम है, जिनके सान्निध्य के लिए स्वय भगवान भी व्याकुल हो उठते हैं। उन सन्तों की वाणी के सहस्त्रोश का एक अणु भी यदि परा रूप से हमारे अतत में प्रविष्ट हो जाए तो साध्य को उपलब्धि में किंचिन्मात्र भी विलंब न हो।
।।
श्री राम, जय राम, जय जय राम ।श्री
राम, जय राम,
जय जय राम ।।
अनुक्रम / भक्ति संगीत अंक लेख |
||
1 |
अकारादि क्रम से भक्कवियों की सूची |
3 |
2 |
संपादकीय |
5 |
3 |
भक्ति संगीत का उद्गम और विकास |
9 |
4 |
संगीत से समाधि तक |
14 |
5 |
हमारा भक्ति संगीत विभिन्न दृष्टिकोण |
17 |
6 |
भारतीय संगीत साहित्य में भक्ति संगीत का योगदान |
28 |
7 |
भक्ति और संगीत का पारस्परिक सम्बन्ध |
30 |
8 |
ईश्वर प्राप्ति का अमोघ साधन नाद योग |
36 |
9 |
मन्त्रदृष्टि संगीत |
38 |
10 |
सुख, शान्ति व शक्ति का राज मार्ग |
40 |
11 |
पुष्टि मार्ग और हमारी परम्परा |
43 |
12 |
प्रबन्ध के इतिहास में गीतगोविन्द का स्थान |
45 |
13 |
सूरदास का संगीत पक्ष |
48 |
14 |
स्वाति तिरुनाल के भक्तिरस भरे कीर्तन |
55 |
15 |
राजस्थानी रात्रि जागरण की भक्ति धारा |
65 |
16 |
भारतीय नृत्य कला का जोत भक्ति भाव और कथक में उसका स्वरूप |
69 |
17 |
भक्ति संगीत (स्वरबद्ध एकसौएक पद) |
78 |
18 |
दो स्वर रचनाएँ चार |
80 |
19 |
स्वर रचनाएँ पन्द्रह स्वर रचनाएँ |
86 |
20 |
छह स्वर रचनाएँ |
109 |
21 |
चौबीस स्वर रचनाएँ |
113 |
22 |
चार स्वर रचनाएँ |
130 |
23 |
आठ स्वर रचनाएँ |
146 |
24 |
चार स्वर रचनाएँ |
157 |
25 |
तीन स्वर रचनाएँ |
163 |
26 |
दो स्वर रचनाएँ |
165 |
27 |
दो स्वर रचनाएँ |
167 |
28 |
तीन स्वर रचनाएँ |
169 |
29 |
दो स्वर रचनाएँ |
173 |
30 |
तीन स्वर रचनाएँ |
178 |
31 |
दो स्वर रचनाएँ |
180 |
32 |
पाँच विविध स्वर रचनाएँ |
183 |
33 |
तीन फिल्मी भजन |
163 |
34 |
ताल तरंग |
203 |
35 |
भक्ति संगीतोपयोगी ताल |
203 |
36 |
परनों में भक्ति भावना |
206 |
37 |
थिरकन |
209 |
सम्पादकीय
जीवन
के लक्ष्य अखंड
आनंद की प्राप्ति
के लिए मन,
वचन और कर्म
से भगवान् की भक्ति
आवश्यक है भगवान्
के प्रति अनन्य
प्रेम तथा समर्पण
की भावना को ही
भक्ति कहते हैं
भक्ति नौ प्रकार
की बताई गई है, जिसमें से
भगवान् के गुणों
का गान (कीर्तन)
सहज और श्रेष्ठ
है गान के अधिक
संवेदनशील होने
पर माधुर्य भाव
अथवा सत्व का उद्रौक
होता है न् सत्तवोद्रेक
से चित्त क्रमश
शांत होता है और
विराम उत्पन्न
होता है । ऐसे विराग
के अनुकूल राग
हो, राग के
अनुकूल छंद हो, छंद के अनुकूल
शब्द हों और शब्दों
के अनुकूल लय हो, तो मन का अखंड
लय (समाधि) होता है।
भगवान
का प्रत्येक नाम
एक मन्त्र है स्वर
और लय के आधार से
मंत्र की शब्द
या चेतन शक्ति
जाग्रत रहती है
वल्लभ, चैतन्य,
हर, मीराँ,
तुलसी, पुरंदरदास, त्यागराज, तुकाराम, नरसी,
गोरख,
हरिदास जयदेव, विद्यापति, धर्मदास, नानक,
मलूकदास, रैदास, पलटूदास, राह सुन्दरदास, चरनदास, सहजोबाई, दयाबाई इत्यादि
संत भक्तो ने स्वर
और शब्द की चेतन
शक्ति से ते भगवान्
का अनन्य प्रेम
उपलब्ध किया तथा
जगत को सत्य का
संदेश दिया।
आलवार सतों नाम सर्कीर्नत की भक्ति धारा से दक्षिण भारत को रससिक्त करके उत्तर को भी उश्रसे आप्लावित किश इन संतो की परम्परा में ही रामानुजाचार्य हूए। उत्तर भारत में रामानुजाचार्य की परम्परा को पोषित करनेवाले स्वामी रामानन्द (सन् १४०० ई० के लगभग) हुए, जिन्होंने भक्ति के क्षेत्र में भेद की दीवारों को समाप्त करके, तमाम के प्रत्येक वर्ग के लिए उसे सेव्य बना दिया। मानव हृदय को केवल आनन्द प्रदान करनेवाला काव्य इन भक्त कवियों को अभीष्ट नहीं था उन सभी के समक्ष एक ही लक्ष्य था और वह भक्ति काव्य के माध्यम से जन कल्याण।
ईसा की १४ वीं शताब्दी से १९ वीं शताब्दी तक का आम भक्ति साहित्य की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है इस काम में भक्ति आंदोलन अपने चरम उत्कर्ष पर था और इसी समय निर्गुण संत भक्ति, प्रेममार्गी सूफ़ी भक्ति, प्रेमलक्षणा कृष्ण भक्ति तथा मर्दादामार्गी राम भक्ति की प्रेरणा से हो हिन्दी के सर्वोच्च साहित्य का निमार्ण हुआ, जिसके प्रभावस्वरूप शिल्प, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं को भी पूर्ण विकसित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस काल को भक्ति काल कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति नहीं, इस काल के भक्त गायकों द्वारा प्रसारित जीवन के मूल्य और मर्यादाएँ आज तक लोक में प्रतिष्ठित है, कयोंकि सभी संत गायक समान रूप से सांसारिक भोग विलास को हेय और त्याज्य दृष्टि से देखते हैं मिथ्या वैभव, पाखंड, तथा अत्याचारी प्रवृत्ति को निंदा की दृष्टि से देखते हैं और जीवन के सात्विकरूप, शास्त्रीय मर्यादाओं के पालन, जीव वाथ के प्रति दया तथा प्रेम को प्रवृत्ति को अपनाने पर चल देते हैं ताकि मानव की प्रसुप्त क्रियात्मक शक्तियों का जागरण होकर अक्षय सुख और शांति को अभिवृद्धि हो।
सत्य, मूल तत्त्व
या भगवान् का साक्षात्कार
करने की प्रवृत्ति
मनुष्य की प्रकृति
में प्रारम्भ से
ही किसी न किसी
रूप में विद्यमान
रही है इसी प्रवृत्ति
का अभिव्यक्ति
सभ्यता के सभी
स्तरों,
देशों तथा
कालों में होती
रही है और इसी का
नाम भक्ति है।
यज्ञ प्रधान ब्राह्मण
धर्म, की
प्रतिक्रियास्वरूप
भागवत धर्म का
उदय हुआ,
जिससे भारतीय
भक्ति साहित्य
को पोषण प्राप्त
हुआ कृष्ण वैदिक
देवता विष्णु के
अवतार माने गए, अतः भागवत
एवं बाह्मण धर्म
के समन्वय से वैष्णव
धर्म की उत्पत्ति
हुई । ईसवीं सन्
के प्रारम्भ से
राम भी विष्णु
के अवतार के रूप
में स्वीकृत होने
लगे।, परन्तु
राम भक्ति की विशेष
अभिवयक्ति ग्यारहवीं
शताब्दी के भाव
ही विशेष रूप से
हुई । विदेशो में
राम भक्ति का प्रचार
सर्वप्रथम बौद्धों
के द्वारा हुआ
।
कृष्ण भक्ति के जिस रूप ने समस्त भारत को रसमग्न किया, उसका मुख्य केन्द्र वृंदावन रहा, जिसने कई शताब्दियों तक चित्रकार, कवि, नर्तक तथा संगीतकारों को भी प्रेरणा प्रदान की । मनुष्य को सौंदर्य वृत्ति को परिष्कृत तथा सार्थक बनाने में भक्ति काव्य का प्रमुख हाथ रहा ।
भक्तिपरक काव्य को ही भजन कहते हैं छंद और स्वर की दृष्टि से भक्ति गीत के लिए कोई बन्धन नहीं है, फिर भी गेय पद स्वर, राग एवं ताल से विभूषित होकर जब प्रस्तुत किए जाते हैं, तो उनसे रस की जो अजस्त्र धारा बहती है, वह अनिवंचनीय होती है । भक्ति पद में इष्ट के रूप और गुण का कीर्तन होता है कीर्तन सगुण और निर्गुण दोनों उपा सनाओं के लिए आलम्बन रहा है वल्लभ संप्रदाय ने भक्ति गीतों के स्थान पर कीर्तन को अधिक महत्त्व दिया, क्योंकि शिक्षित तथा अशिक्षित, किसी भी वर्ग के कितने भी विस्तृत समुदाय के लिए उसमें भाग लेना संभव है । पद के शुद्ध उचारण, राग एवं ताल इत्यादि में पारंगत होना कीर्तनकार के लिए आवश्यक नहीं । वहाँ सरल स्वरोच्चार तथा समर्पण की भावना से ही व्यक्ति को परम संतोष हो जाता है, क्योंकि उसका लक्ष्य इष्ट के साथ तदाकारिता एवं तद्रू पता अमूर्त और स्वयंभू लय तत्त्व की संभरण शक्ति के माध्यम ले कीर्तनकार के भाव स्वत उद्दीप्त होते रहते हैं परंतु भावना विस्तार के लिए भक्तिपरक शब्दों को संगीतजोवी होना आवश्यक है । इसीलिए मीरा, सूर, और तुलसी इत्यादि ने अपने भक्ति काव्य को साहित्य तथा संगीत की दृष्टि से पूर्ण व्यवस्था दी । सामान्य जीवन से उठकर उनकी रचनाएं शास्त्रीय संगीत तथा भाषा साहित्य तक को समृद्ध करने लगीं ।
भक्ति गान में सहज उद्रेक, नवोन्मेष सद्य स्फूर्ति, स्वच्छन्दता तथा अनाडम्बर इत्यादि विशेषताएं स्वय आ जाती हैं। भक्ति भाव को उद्दीप्त करनेवाली प्रस प्रेरणा उसमें निरंतर व्यक्त रहती है और उसी के द्वारा भाव का विस्तार नियंत्रित होता है । मूर्त के अन्दर जो अमूर्त एकरसता और सौंदर्य विद्यमान है, भक्ति गान के द्वारा कलाकार उसे उद्घाटित कर सकता है । भारत को कीर्तन प्रणाली से आज का पाश्चात्य युवा वर्ग भी आकर्षित होता जा रहा है इसीलिए यूरोप ओर अमेरिका की सड़कों पर हरे राम, हरे राम, राम,राम, हरे हरे तथा हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे का गूंज बढ़ती जा रही है । पाश्चात्य कलाविदों एवं दार्शनिकों का कहना है कि भारतीय कीर्तन किलो भी दर्शन ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता, वह समय और समष्टिगत अनुभव है इस दृष्टि से कीर्तन मनुष्य की विशुद्ध ओर चरमतर संवेदना है ।
गीत को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थो का साधन बताया गया है । भक्ति गीत प्रेय के द्वारा श्रेय की उपलब्धि कराने ने अद्वितीय हे भक्तिपरक पद या विष्णुपद शास्त्रीय सगीत की ध्रुवपद पद्धति के जनक हैं इससे पूर्व स्तोत्र या स्तोत्र गान ( ईश्वरपरक स्तुति गान) ने प्रबंध गान को पृष्ट किया था । इन सबका आदि रूप साथ गान वस्तुत स्तोत्र पाठ का ही गेय रूप या । छादोग्य उपनिषद (१ ।१ । २) में कहा गया है वाच ऋग् रस, ऋच साम रस, साम्न उद्गीथो रस ।। अर्थात्, वाक का रस ऋक् (काव्य) है, ऋक् का रस साम (षड्स और मध्यमग्राम के अन्तर्गत गाया जाने वाला तथा शब्द और स्वर की समरसता उत्पन्न करने वाला) है, साम का रस उद्गीथ (प्रणच धोष) है । तात्पर्य यही है कि नाद के बाह्मा रूप का चेतना के साम ऐक्य स्थापित हो, जो आज भो भक्तिगान के माध्यम से सुबोध है ।
साम की पंचविध और सप्तविध उपासनाओं का उल्लेख मिलता है, जो विभिन्न देवताओं की दृष्टि से पृथक् पृथक् थी छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार प्रजापति का उद्गीथ अनिरुक्त, सोम का निरुक्त, वायु का मृदुल और श्लक्ष्ण, इन्द्र का श्लक्ष्ण और बलवान्, बृहस्पति का क्रौंच समान और वरुण का अपध्वांत है देशी गान में उपासना के यही रूप विभिन्न जातियों और प्रबन्ध प्रकारों के रूप में प्रचलित हुए तथा लौकिक गान में जाति वर्ण और पंथ भेद से इनका रूप आज भी मन्दिर तथा ग्राम्य जीवन में सुरक्षित है इस प्रकार वर्तमान भक्ति गान की मूल प्रेरणा वेद मे निहित है और वेद ब्रह्मवाद के समर्थक हैं ।
ब्रह्मावाद के सगुण और निर्गुण रूप ने ही भक्ति के विभिन्न सम्प्रदायों को जन्म दिया हे १२ वीं शताब्दी से १६ वीं शतान्दी तक संत काव्य का जो रूप मिलता है उसमे सम्प्रदाय अधिक नहीं, परन्तु ईसवी सन् को १६ वी शताब्दी से १८ वीं शताब्दी के मध्य काल तक पथ और सम्प्रदायों का निरन्तर प्रसार होता रहा, परिणामस्वरूप विपुल भक्ति साहित्य अस्तित्व में आ गया सन्त साहित्य के इतिहास का आधुनिक युग १९ वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है ।
समस्त सन्त काव्य का प्रधान विषय धार्मिक तथा दार्शनिक ही रहा है । गीता में भक्त और भक्ति, दोनों को विशेष महत्ता प्रदान की गई है श्रुति ने कहा है कि देवताओं के स्वामी विष्णु साथ गान द्वारा जितनी जल्दी प्रसन्न होते हैं, वैसे यज्ञ दानादि द्वारा भी नहीं होते । पूजा से करोड़ गुना श्रेष्ठ स्तोत्र होता है, स्तोत्र से करोड़ गुना श्रेष्ठ जप और जप से करोड़ गुना श्रेष्ठ गान होता है, गान से परे कुछ नहीं तात्पर्य यही है कि सस्वर भक्ति ही सर्वोकृष्ट और शीघ्रफल प्रदान करने वाली है भक्ति गान के द्वारा आहत नाद की सिद्धि होकर अनाहत की उपलब्धि सरलता से होती है, जिससे साधक जीवन मुक्ति आ लाभ प्राप्त करता है ।
चैतन्य सम्प्रदाय के अनुयायी रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत सिंधु तथा उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस की प्रतिष्ठा की है और भक्ति रतामृत सिधु में उसके मुख्य तथा गौण भेदों के । अन्तर्गत अन्य सभी रसों को ले आने का प्रयत्न किया है । मधुसूदन सरस्वती के भक्ति रसायन ग्रन्थ में भक्ति के अलौकिक महत्व का निरूपण करते हुए उसे दसवाँ रस बताया गया है तथा अन्य सभी रसों से उसे श्रेष्ठ माना है । भक्तिरस की महत्ता तथा उसका स्वरूप भागवत में स्थान स्थान पर व्यक्त किया गया है नारद भक्तिसूत्र में भक्ति को परमप्रेमरूपा कहा गया है । वास्तव में भक्ति रस ऐसी आनन्दमयीचेतना है, जिसके अंश मात्र की उपलब्धि से ही अन्त करण को स्फूर्ति मिलती है और वह जीवित रहता है । तैत्तिरीयउपनिषद मे जगत के समस्त पदार्थो का कारण, आधार और लय आनन्द बताया गया हे द्वैत ने दुख है और एकत्व मे आनन्द । यह आनन्द ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है, जो भक्ति के माध्यम से शीघ्र अनुभूत होता है । हिन्दी के समस्त सन्त साहित्य और भक्ति साहित्य में आनन्द की अखण्ड रूप से उपलव्धि का माध्यम भक्ति सगीत बताया गया है इस अखंड आनन्द को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा ही जीवन के विविध क्षेत्रों में पथ प्रदर्शिका बनती है। इसी लिए सभी सन्तों और भक्तों ने भक्ति को मुख्य रस माना है तथा अन्य सभी रसों को भक्ति का अवांतर रूप का है ।
भाषा की अपेक्षा नाद का प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक होने से तथा भक्तिपरक शब्दों को सस्वर प्रस्तुत करने से, बच्चों से लेकर वृद्धों तक पर उसका प्रभाव पडता है मन्दिरों में भगवान की आरती के समय जब एक साथ शख, घड़ियाल और घन्टों का निनाद गूँजता है, तो तिर्यक् योनि के प्राणी (विशैष रूव से) स्वान तक उससे प्रभावित होकर दीर्घ स्वरोच्चारण करते हुए अपनी ध्वनि कौ दिव्य नाद के साथ एकाकार करने का प्रयत्न करने देखे जाते है ।
भक्ति काव्य के आदि, मध्य तथा अन्त में सार, हरिपद, चौपाई, चौपई, दोहा, सरसी, गीता, मुक्तामणि, श्यामउल्लास, श्लोक, छप्पप तथा शेर इत्यादि प्राय रहते है भक्ति काव्यों के कुछ प्रकार ऐसे भी प्रचार में आए हँ, जिन्हें लोक धुनों का आश्रय प्राप्त हो जाने से वे साधारण जीवन और हिन्दू सस्कृति का अग मन गए है । दैनिक जीवन में राग द्वेष तथा हर्ष शोक के भाव प्राय जिती नकिसी क्षण में आते ही रहते हैं, जिनसे मानव चित्त विचलित होता रहता हे इस अवस्था से मुक्ति पाने के लिए भक्ति गान और भक्ति मृत्य से बढकर दूसरा कोई सरल उपाय नहीं है द्वारिका महात्म्य मे लिखा है कि जो प्रसन्न चित्त से, श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भावों सहित मृत्य करते हैं, वे जन्मांन्तरो के पापों मे मुक्त हो जाते हैं ।
भक्ति गीत पवित्र, वंदनीय तथा अलौकिक शक्ति सम्पन्न होते है । भक्ति काव्य में सत्य, शिव और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय है । परम तृप्ति के साथ साथ उसपे परम आह्लाद भी है । भक्ति गाम से वृत्ति जब ध्येयाकार होती है, तो चित्त का आवरण हटता है, मल और विक्षेप समाप्त होते हैं, ज्ञान की प्रकृष्ट दीप्ति होकर आत्म ब्योलि उद्भासित हो उठती है । कथाकार वे माधुर्य और सत्यं का वैभव उपलबध होता है। सत्य से उद्रेक से तार्किक बुद्धि तिरोहित होकर चेतन के साथ तद्रूप होती है ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी एक हो जाती है, अनेकता से एकता का बोध होता है और तुरीय पद प्राप्त होता है । यही वह पुण्य भूमि है, जहाँ समस्त पाप दग्ध हो नाते है । सूर जैसा भाव, मीराँ जैसा प्रेम और तुलसी जैसी श्रद्धा रखकर भक्ति सगीत प्रस्तुत किया जाए तो मनुष्य का जीवन सफल हो जाए। आज से अट्ठाईस वर्ष पूर्व सन १९४२ में हमने संगीत व एक विशेषाक भजन अंक और सन् १९४८ में संत संगीत अक प्रकाशित किया था तथा अब महात्मा गांधी जैसे विश्व प्रसिद्ध भक्त के जन्मशताब्दी समारोह वर्ष के सुअवसर पर भक्ति संगीत लक समर्पित कर रहे हैं । भक्त पाठकों को भक्ति रस भे अवगाहन करने का अवसर देकर हम अपने को कृतकृत्य अनुभव कर रहे है । संमार के समस्त सन्त और भक्तों के चरणों में हमारा बारंबार प्रणाम है, जिनके सान्निध्य के लिए स्वय भगवान भी व्याकुल हो उठते हैं। उन सन्तों की वाणी के सहस्त्रोश का एक अणु भी यदि परा रूप से हमारे अतत में प्रविष्ट हो जाए तो साध्य को उपलब्धि में किंचिन्मात्र भी विलंब न हो।
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श्री राम, जय राम, जय जय राम ।श्री
राम, जय राम,
जय जय राम ।।
अनुक्रम / भक्ति संगीत अंक लेख |
||
1 |
अकारादि क्रम से भक्कवियों की सूची |
3 |
2 |
संपादकीय |
5 |
3 |
भक्ति संगीत का उद्गम और विकास |
9 |
4 |
संगीत से समाधि तक |
14 |
5 |
हमारा भक्ति संगीत विभिन्न दृष्टिकोण |
17 |
6 |
भारतीय संगीत साहित्य में भक्ति संगीत का योगदान |
28 |
7 |
भक्ति और संगीत का पारस्परिक सम्बन्ध |
30 |
8 |
ईश्वर प्राप्ति का अमोघ साधन नाद योग |
36 |
9 |
मन्त्रदृष्टि संगीत |
38 |
10 |
सुख, शान्ति व शक्ति का राज मार्ग |
40 |
11 |
पुष्टि मार्ग और हमारी परम्परा |
43 |
12 |
प्रबन्ध के इतिहास में गीतगोविन्द का स्थान |
45 |
13 |
सूरदास का संगीत पक्ष |
48 |
14 |
स्वाति तिरुनाल के भक्तिरस भरे कीर्तन |
55 |
15 |
राजस्थानी रात्रि जागरण की भक्ति धारा |
65 |
16 |
भारतीय नृत्य कला का जोत भक्ति भाव और कथक में उसका स्वरूप |
69 |
17 |
भक्ति संगीत (स्वरबद्ध एकसौएक पद) |
78 |
18 |
दो स्वर रचनाएँ चार |
80 |
19 |
स्वर रचनाएँ पन्द्रह स्वर रचनाएँ |
86 |
20 |
छह स्वर रचनाएँ |
109 |
21 |
चौबीस स्वर रचनाएँ |
113 |
22 |
चार स्वर रचनाएँ |
130 |
23 |
आठ स्वर रचनाएँ |
146 |
24 |
चार स्वर रचनाएँ |
157 |
25 |
तीन स्वर रचनाएँ |
163 |
26 |
दो स्वर रचनाएँ |
165 |
27 |
दो स्वर रचनाएँ |
167 |
28 |
तीन स्वर रचनाएँ |
169 |
29 |
दो स्वर रचनाएँ |
173 |
30 |
तीन स्वर रचनाएँ |
178 |
31 |
दो स्वर रचनाएँ |
180 |
32 |
पाँच विविध स्वर रचनाएँ |
183 |
33 |
तीन फिल्मी भजन |
163 |
34 |
ताल तरंग |
203 |
35 |
भक्ति संगीतोपयोगी ताल |
203 |
36 |
परनों में भक्ति भावना |
206 |
37 |
थिरकन |
209 |