पुस्तक के विषय में
अब तक दुनिया में दो ही तरह के धर्म रह हैं-ध्यान के और प्रेम के। और वे दोनों अलग-अलग रहे हैं। इसलिए उनमें बड़ा विवाद रहा। क्योंकि वे बड़े विपरीत हैं। उनकी भाषा ही उलटी है।
ध्यान का मार्ग विजय का,संघर्ष का, संकल्प का। प्रेम का मार्ग हार का,पराजय का, समर्पण का। उसमें मेल कैसे हो?
इसलिए दुनिया में कभी किसी ने इसकी फिकर नहीं की दोनों के बीच मेल भी बिठाया जा सके।
मेरा प्रयास यही है कि दोनों में कोई झगड़े की जरूरत नहीं है। एक ही मंदिर में दोनों तरह के लोग हो सकते हैं। उसको भी रास्ता हो, जो नाच कर जाना चाहते हैं। उनकों भी रास्ता हो, जो मौन होकर जाना चाहते हैं। अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल परमात्मा का रास्ता खोजना चाहिए।
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:-
क्या बिना ध्यान के साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता?
विचारों पर नियंत्रण कैसे हो?
जीवन का अर्थ क्या है?
अभिनय क्या प्रेम को झूठा न बना देगा?
तुमने प्रेम किया है? या प्रेम हुआ है?-पर सोचना।
पूर्ण क्रांति का क्या अर्थ है?
मनुष्य एक वीणा है। अपूर्व संगीत की संभावना है। लेकिन जहां संगीत की संभावना हैं,वहां विसंगीत की भी संभावना है।
सितार कुशल हाथों में हो,तो गीत पैदा होगा। अकुशल हाथों में हो, शोरगुल। सितार वही है,हाथ की कुशलता चाहिए, कला चाहिए।
जीवन तो वही है, सभी के पास वही है। बुद्ध के पास वही, तुम्हारे पास वही; कृष्ण के पास वही, क्राइस्ट के पास वही। एक सी वीणा मिली है, और एक सा संगीत मिला है।
लेकिन वीणा से संसगीत उठाने की कला सीखनी जरूरी है। उस कला का नाम ही धर्म है।
तुम्हारे जीवन को जो संगीत मय कर जाए, वही धर्म। तुम्हारे जीवन में जो फूल खिला जाए, वही धर्म। तुम्हारे जीवन को जो कीचड़ से कमल बना जाए, वही धर्म।
और ध्यान रखना; क्षण भर को भी न भूलना: बीज तुममें उतना ही है, जितना बुद्ध में। हो तुम भी वही सकते हो। न हो पाए, तो तुम्हारे अतिरिक्त कोई और जिम्मेदार नहीं।
अंत मुक्ति पद पाइहौं, जग में होय न हानि।
और अगर प्रभु का स्मरण जारी रहे, बाहर की व्यर्थ उलझनों में न उलझनों में न उलझों अंहकार की यात्राओं पर न निकलो, तो एक दिन अंतत: वह परम मुक्ति मिलेगी। उड़ोगे पंख फैला कर आकाश में। वह परम आनंद, अमृत मिलेगा। और ‘जग में होय न हानि’ और जम में कुछ भी हानि न होगी। कुछ नुकसान किसी का न होगा। यह सोचना।
मैं चरणदास से ज्यादा राजी हूं-बजाय बुद्ध और महावीर के। क्योंकि उनकी वाणी का परिणाम-जगत में बहुत हानि भी हुई। लोगों को लाभ हुआ, लेकिन जगत में हानि हुई। कोई पति भाग गया-घर छोड़ कर । तो उसे लाभ हुआ। लेकिन पत्नी, बच्चे भिखारी हो गए; दर-दर के भिखारी हो गए। जिम्मेवारी से भाग गया आदमी। बच्चे पैदा किए थे, पत्नी को विवाह कर लाया था; कुछ जिम्मेवारी थी। यह तो धोखा हो गया। यह ईमानदारी न हुई। इसकी कोई जरूरत न थी। यह पत्नी जीते-जी विधवा हो गई; ये बच्चे बाप के रहते अनाथ हो गए।
हजारों-लाखों लोग संन्यस्त हुए हैं, अतीत में और हजारों-लाखों घर बरबाद हुए हैं।
चरणदास कहेंगे: जग में कुछ हानि करने की जरूरत नहीं है। जग का काम सम्हाले चले जाना। पृथ्वी पर बसे रहना, प्राण परमेश्वर में बसा देना।
मैं जो कहता हूं उसे सुन लेने मात्र से, समझ लेने मात्र से तो अनुभव में नहीं उतरना होगा । कुछ करो । मैं जो कहता हूं उसके अनुसार कुछ चलो । मैं जो कहता हूं उसको केवल बौद्धिक संपदा मत बनाओ । नहीं तो कैसे अनुभव से संबंध जुड़ेगा मैं गीत गाता हूं- सरिताओं के, सरोवरों के । तुम सुन लेते हो । तुम गीत भी कंठस्थ कर लेते हो । तुम कहते हो गीत बड़े प्यारे हैं । तुम भी गीत गुनगुनाने लगते हों-सरिताओं के, सरोवरों के । लेकिन इससे प्यास तो न बुझेगी ।
गीतों के सरिता-सरोवर प्यास को बुझा नहीं सकते । और ऐसा भी नहीं कि गीतों के सरिता-सरोवर बिलकुल व्यर्थ हैं । उनकी सार्थकता यही है कि वे तुम्हारी प्यास को और भड़काएं ताकि तुम असली सरोवरों की खोज में निकलो ।
मैं यह जो गीत गाता हूं-सरिता-सरोवरों के-वह इसीलिए ताकि तुम्हारे हृदय में श्रद्धा उमगे कि ही, सरिता-सरोवर है, पाए जा सकते हैं । ताकि तुम मेरी आख में आख डाल कर देख सको कि हां, सरिता-सरोवर हैं; ताकि तुम मेरा हाथ हाथ में लेकर देख सको कि ही, कोई संभावना है कि हम भी तृप्त हो जाएं, कि तृप्ति घटती है; कि ऐसी भी दशा है परितोष की, जहां कुछ पाने को नहीं रहता; कहीं जाने को नहीं रहता; कि ऐसा भी होता है, ऐसा चमत्कार भी होता है जगत में-कि आदमी निर्वासना होता है । और उसी निर्वासना में मोक्ष की वर्षा होती है ।
मैं गीत गाता हूं-सरिता-सरोवरों के, इसलिए नहीं कि तुम गीत कंठस्थ कर लो और तुम भी उन्हें गुनगुनाओ । बल्कि इसलिए ताकि तुम्हें भरोसा आए; तुम्हारे पैर में बल आए; तुम खोज पर निकल सको ।
लंबी यात्रा है । काल-पहाड़ों से गुजरना होगा । हजार तरह के पत्थर-पहाडों को पार करना होगा । और हजार तरह की बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं, जो तुम्हें तोड़नी होंगी । यात्रा दुर्गम है । मगर अगर भरोसा हो कि सरोवर है तो तुम यात्रा पूरी कर लोगे । अगर भरोसा न हो कि सरोवर है तो तुम चलोगे ही कैसे! पहला ही कदम कैसे उठाओगे?
गीतों का अर्थ इतना ही है कि तुम्हें भरोसा आ जाए कि सरोवर हैं ।
और भरोसा काफी नहीं है । भरोसा सरोवर नहीं बन सकता । सरोवर खोजना होगा । और मेरी बातें सुन-सुन कर अगर पहुंचना होता, तब तो बड़ी सस्ती बात होती । किसकी बात सुन कर कौन कब पहुंचा है?
कुछ करो । कुछ चलो । उठो । पैर बढ़ाओ ।
परमात्मा संभव है, लेकिन तुम चलोगे तो ही । और परमात्मा भी तुम्हारी तरफ बढ़ेगा, लेकिन तुम चलोगे तो ही । तुम पुकारोगे तो ही वह आएगा ।
मिलन होता है, लेकिन मिलन उन्हीं का होता है जो उसे खोजते हुए दर-दर भटकते है । असली दरवाजे पर आने के पहले हजारों गलत दरवाजों पर चोट करनी पड़ती है । ठीक जगह पहुंचने के पहले हजारों बार गढ़्डों में गिरना पड़ता है ।
जो चलते है, उनसे भूल-चूक होती है । जो चलते है, वे भटकते भी हैं । जो चलते है, उनको कांटे भी गड़ते हैं । जो चलते हैं, वे चोट भी खाते है ।
चलना अगर मुफ्त में होता होता, सुविधा से होता होता तो सभी लोग चलते । चूंकि चलना सुविधा से नहीं होता, इसलिए अधिक लोग अपने-अपने घरों मे बैठे हैं, कोई चल नहीं रहा है ।
लेकिन गति के बिना उस परम की उपलब्धि नहीं है ।
परमात्मा का असली स्वाद लेने के लिए उठो और चलो । ध्यान करो । यात्री बनो । दाव पर लगाना होगा । जुआरी हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता है ।
अनुक्रम
1
भक्त का अंतर्जीवन
2
प्रयास और प्रसाद का मिलन
33
3
जग माहीं न्यारे रही
67
4
ध्यान और साक्षीभाव
97
5
भक्ति की कीमिया
127
6
पात्रता का अर्जन
159
7
गुरु-कृपा-योग
193
8
ध्यान और प्रेम
227
9
मुक्ति का सूत्र
263
10
अभिनय अर्थात अकर्ता-भाव
297
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