महाभिषग: Mahabhishag - A Novel Based on The Life of Gautam Buddha

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Item Code: NZD057
Author: भगवान सिंह (Bhagwan Singh)
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan
Language: Hindi
Edition: 2014
ISBN: 9788173096358
Pages: 207
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 240 gm
Fully insured
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100% Made in India
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Fair trade
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23 years in business
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Shipped to 153 countries
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Book Description

पुस्तक के बारे में

महाभिषग शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित उपन्यास है न कि भगवान बुद्ध के । बुद्ध को भगवान बनानेवाले उस महान उद्देश्य से ही विचलित हो गए थे, जिसे लेकर बुद्ध ने अपना महान सामाजिक प्रयोग किया था और यह संदेश दिया था कि जाति या जन्म के कारण कोई किसी अन्य से श्रेष्ठ नहीं है और कोई भी व्यक्ति यदि संकल्प कर ले और जीवन-मरण का प्रश्न बनाकर इस बात पर जुट जाए तो वह भी बुद्ध हो सकता है ।

महाभिषग इस क्रांतिकारी द्रष्टा के ऊपर पड़े देववादी खोल को उतारकर उनके मानवीय चरित्र को हो सामने नहीं लाता, यह देववाद के महान गायक अश्वघोष को भी एक पात्र बनाकर सिर के बल खड़ा करने का और देववाद की सीमाओं को उजागर करने का प्रयत्न करता है ।

इतिहास की मार्मिक व्याख्या वर्तमान पर कितनी सार्थक टिप्पणी बन सकती है, इस दृष्टि से भी यह एक नया प्रयोग है ।

लेखक के बारे में

भगवान सिंह का जन्म, 1 जुलाई 1931, गोरखपुर जनपद के एक मध्यवित्त किसान परिवार में। गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम. . ( हिंदी) । आरंभिक लेखन सर्जनात्मक कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना । 1968 में भारत की सभी भाषाओं को सीखने के क्रम में भाषाविज्ञान और इतिहास की प्रचलित मान्यताओं से अनमेल सामग्री का प्रभावशाली मात्रा में पता चलने पर इसकी छानबीन के लिए स्थान नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, अंशत : प्रकाशित, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, (1973); पुन : इसकी गहरी पड़ताल के लिए शोध का परिणाम आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, (1973) । इसके बाद मुख्य रुचि भाषा और इतिहास के क्षेत्र में अनुसंधान में और सर्जनात्मक लेखन प्रासंगिक हो गया । इसके बाद के शोधग्रथों में. हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, दो खंडों में, (1987) राधाकृष्ण प्रकाशन) दरियागंज, नई दिल्ली; दि वेदिक हड़प्पन्स, (1995), आदित्य प्रकाशन, एफ 14/65, मॉडल टाउन द्वितीय, दिल्ली - 110009, भारत तब से अब तक (1996) शब्दकार प्रकाशन, अंगद नगर, दिल्ली-92) ( संप्रति) किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; भारतीय सभ्यता की निर्मिति (2004) इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद; प्राचीन भारत के इतिहासकार, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011), भारतीय परंपरा की खोज, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, ( 2011), कोसंबी : कल्पना से यथार्थ तक, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली, (2011); आर्य-द्रविड़ भाषाओं का अंत : संबंध, सस्ता साहित्य मण्डल (2013); भाषा और इतिहास, (प्रकाश्य) । संप्रति ऋग्वेद का सांस्कृतिक दाय पर काम कर रहे हैं ।

प्रकाशकीय

मेरे गुरुवर पालि साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. भरत सिंह उपाध्याय आज जीवित होते तो 'महाभिषग' उपन्यास को पढ़कर इसका नया पाठ-विमर्श करते और चित्त से खिल गए होते । वे नहीं हैं पर आप तो हैं । इस उपन्यास का सांस्कृतिक परिवेश न केवल मोहक है बल्कि आँखें खोलनेवाला है । 'महाभिषग' उपन्यास की सांस्कृतिक संवेदना का बोध आपको उस समय समाज-संस्कृति-इतिहास की गूँजों-अनुगूँजों से साक्षात्कार कराएगा । संस्कृति, समाज, युग परिवेश पर संस्कृति चिंतक कथाकार भगवान सिंह जी की मजबूत पकड़ रही है । वे अतीत से वर्तमान का संवाद कराने में सक्षम कथाकार हैं । अतीत की वर्तमानता निरंतरता का बोध उनकी कृति कला का अंग रहा है । अश्वघोष हों या आचार्य पुण्ययश, सभी की भाषा संवेदना में युग की मोहक ध्वनियाँ हैं । कहना होगा कि इस उपन्यास की अंतर्यात्रा का अपना बौद्धिक .सुख है । यह सुख बौद्ध-धर्म-दर्शन के दो घूँट पा जाने से कम नहीं हैं ।

मैं भगवान सिंह जी के इस उपन्यास को पाठक समाज को सौंपते हुए अपार हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ । मुझे विश्वास है कि हिंदी के प्रबुद्ध समाज में इस उपन्यास का स्वागत होगा ।

दो शब्द

सज्जनो, स्वयं गिनकर देखिए-क्या ये दो ही शब्द हैं? देश का दुर्भाग्य है कि जिन्हें गिनती तक नहीं आती वे साहित्य लिखने बैठ जाते हैं । और प्राय: गणित के शलाकाधारियों को भी इनकी लिखी चीजें पढ़नी पड़ जाती हैं । दोष मेरा नहीं है । मैं तो केवल परंपरा का निर्वाह कर रहा हूँ। अपने प्रेमचंद तो यह साबित करने के लिए कि वह अच्छे लेखक बन सकते हैं गणित में फेल हो ही गए थे । मेरे साथ, अलबत्ता, एक नई परंपरा आरंभ हो रही है । पाठकों के साथ धोखाधड़ी जरूर करो, पर लेखकीय ईमानदारी के तकाजे से उन्हें यह भी बता दो कि आपके साथ धोखा हुआ है ।

यह उपन्यास आज से दो दशक पहले लिखा और पीने दो दशक पहले छपा गया था, पर प्रकाशित नहीं हो पाया था । कारण यह नहीं था कि उस समय तक हिंदुस्तान में बिजली नहीं आ पाई थी, (समस्या इतनी सरल होती तो दीये या मशाल में काम चला लिया गया होता) बल्कि यह कि एक मेमने को शेर की तरह छलाँग लगाकर पाठकों पर टूट पड़ने को ललकारा गया था और मेमना बेचारा खुद ही आँखें मूँदकर प्रकाश से जी चुरा रहा था । प्रकाशन के विषय में स्वर्गीय सुमित्रानंदन पंत का ज्ञान और अनुभव कविगुरु मैथिलीशरण गुप्त के काव्य-संसार से जुड़ा हुआ था जिनकी कृतियाँ कवि- कल्पना में आने से पहले ही पाठ्यपुस्तकों में लग जाती थीं और पुस्तक विक्रेताओं के पास भी पहले पैसा फिर किताबवाले न्याय से पहुँचती थीं । इसका प्रभाव पुस्तक के वितरण पर पड़ा । राधाकृष्ण प्रकाशन ने इसे प्रकाशित तो किया परंतु रहस्यमय कारणों से वे इसका महत्त्व नहीं समझ सके । फिर मुझे उनसे इसका प्रकाशनाधिकार सस्ता साहित्य मण्डल को सौंपने की विवशता उत्पन्न हुई । अनेक आलोचकों ने इसे मेरे बहुचर्चित उपन्यास 'अपने-अपने राम' से अधिक अच्छी रचना माना है । उनका आकलन सही है या नहीं इसका पता चलना बाकी है ।

इस गर्मी और खुशी का इजहार इस रूप में भी हुआ है कि इसकी भाषा में अपेक्षित परिवर्तन कर दिए गए हैं ।

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