गांधी पटेल (पत्र और भाषण सहमति के बीच असहमति): Gandhi and Sardar Patel

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Item Code: NZD122
Author: नीरजा सिंह (Neerja Singh)
Publisher: National Book Trust, India
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788123760322
Pages: 215
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 280 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी के संबंधों को प्राय: जटिल रूप में प्रस्तुत किया गया है। संतुलित और ऐतिहासिक रूप से सुसंगत परिप्रेक्ष्य में उनके कुछ महत्त्वपूर्ण पत्राचार के इस संकलन के माध्यम से उनके एक-दूसरे के लिए परस्पर सम्मान को ही चित्रित नहीं किया गया है अपितु नीतियों और रणनीतियों के विभिन्न मामलों में दोनों के बीच के मतभेद को भी प्रस्तुत किया गया है । ऐसा करते समय इस संकलन से भारत के स्वतंत्रता संग्राम संबंधी इतिहास की कुछ अति महत्वपूर्ण अवधि पर भी प्रकाश डाला गया है ।

नीरजा सिंह सत्यवती कॉलेज (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं । क्य-होने 'कांग्रेस में दक्षिण और दक्षिण पक्ष की राजनीति : '1934-1949' विषय पर ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पीएचडी की है । वे पटेल पर, विशेषत: राष्ट्रीय नेताओं के साथ उनके संबंधों पर अध्ययन और अध्यापन भी कर रही हैं ।

डी. विचार दास 'सुमन', पूर्व निदेशक, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, भारत सरकार ने इस पुस्तक का अनुवाद किया है. । उन्हें अनुवाद का 35 वर्षों से अधिक का अनुभव है । अनुवाद सिद्धांत आदि विषयों पर उनकी लगभग 10 पुस्तकें प्रकाशित हैं । उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट की चार अन्य पुस्तकों का भी अनुवाद किया है ।

प्रस्तावना

इस पुस्तक का उद्देश्य पाठकों को गांधी जी और सरदार पटेल यं वीच के गहरे भावात्मक और जटिल संबंधों की एक आंतरिक झलक-दिखाना है, जो उनके पत्र-व्यवहार में दिखती है ।

दस्तावेजों के प्रस्तुतीकरण और विश्लेषण में इस बात का ध्यान रखा गया है कि वे टिप्पणियों और संदर्भों से बोझिल न हो जाएं । यह प्रयास इसलिए भी महत्वपूण है कि यह इतिहास को अभिलेखागारों और पुस्तकालय की सीमा से बाहर निकालकर उसे पाठकों तक लाता है । यह पुस्तक नेताओं, घटन;-भी और आंदोलनों के बारे में, आम लोगों के मन की बहुत-सी गलतफहमियों को दूर करने में सहायक होगी । मैं प्रोफेसर विपिन चंद्रा की आभारी हूं कि उन्होंनें मुझे यह काय, करने के लिए प्रोत्साहित किया । उनकी मदद और मागदर्शन के बिना इस पुस्तक का यह रूप देना संभव नहीं था । मैं सरदार पटेल मेमोरियल सोसाइटी अहमदाबाद नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय, दिल्ली और राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के प्रति भी अपना आभार व्यक्त करती हूं ।

पुस्तक के इस हिंदी संस्करण के लिए ट्रस्ट के हिंदी संपादक श्री दीपक कुमार गुप्ता के प्रति भी मैं आभारी हूं जिनके संपादकीय श्रम एवं कौशल ने पुस्तक का इतने सुघड़ एवं साफ-सुथरे रूप में लाने में मदद की।

भूमिका

भारत के राष्ट्रीय आदोलन का अध्ययन कुल मिलाकर आधुनिक भारतीय इतिहास के लेखों का केंद्र-बिंदु रहा है । नेताओं की भूमिका और उनके योगदान और उनकी सफलताओं और विफलताओं का विश्लेषण अनेक परिप्रेक्ष्यों से किया गया है । अध्ययन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू यह रहा है कि साम्राज्यवाद विरोधी आदोलन की नीति, रणनीति और कार्यक्रम की समझ के बारे में विभिन्न नेताओं के बीच के मतभेदों का इसके द्वारा निरूपण किया गया है । किंतु इतिहासकारों में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है कि वे या तो नेताओं की सर्वसम्मति के तत्त्वों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं अथवा उनके मतभेदों का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से करते हैं । गांधी जी और पटेल के बीच के संबंधों के मामले में यह बात विशेष रूप से सत्य है ।

जनसाधारण की धारणा के अनुसार, पटेल को गांधी जी का सच्चा और समर्पित शिष्य, और यहां तक कि उनके अंध अनुयायी के रूप में देखा जाता है; किंतु बाद में नेहरू के प्रति गांधी जी का ऐसा आकर्षण हुआ जिसके कारण बहुत-से लोगों के मन में यह बात पैदा हुई कि दोनों के बीच सुलझाए न जा सकने वाले मतभेद थे । किंतु, वस्तुत: ये दोनों दृष्टिकोण ऐतिहासिक दृष्टि से मान्य नहीं हैं; उनमें पटेल को निंदात्मक रूप से चित्रित करने और गांधी जी को गलत रूप से प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति है ।

नेहरू और गांधी जी के संबंधों की जांच कभी-कभी पटेल और गांधी जी के संबंधों के संदर्भ में की गई है । लेकिन प्राय: निकाले गए निष्कर्ष इन नेताओं के सहचरों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों पर आधारित हैं । इस प्रकार, पार्टी के अंदर की गुटबंदी का कारण गांधी जी और पटेल के बीच के सुलझाए न जा सकने वाले मतभेदों को ठहराया गया है । वास्तव में कांग्रेस जैसे खुले विचारों वाले दल में विचारों में मतभेद होना अवश्यंभावी था ।

गांधी जी और पटेल के बीच गहरे भावात्मक संबंध थे, जो वफादारी और कुर्बानी की गहरी भावना पर आधारित थे और राजनीति, सत्ता और पद के झाड़-झंखाड़ सेबहुत आगे चले गए थे । यह सच है, इन दोनों के बीच रणनीति संबंधी बहुत-से मुद्दों के बारे में मतभेद उत्पन्न हुए थे, जैसे 1930 में नमक सत्याग्रह की बजाय बारदोली जैसा सत्याग्रह शुरू करना, 1930 में नेहरू के कांग्रेस के अध्यक्ष बनने का प्रश्न, 1930 के दशक के प्रारंभ में नागरिक अवज्ञा आदोलन का वापस लिया जाना, 1930 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट का लागू किया जाना, और 1935-38 में परिषद (काउंसिल) में प्रवेश, गांधी जी द्वारा राजनीतिक विरोध-प्रदर्शन के रूप में उपवास रखना, मुस्लिम लीग और जिन्ना के साथ संबंध और कैबिनेट मिशन और भारत-विभाजन के बारे में प्रतिक्रिया ।

फिर भी, इन दोनों के बीच उन मूल्यों और मानदंडों के बारे में आधारभूत मतैक्य था, जिन पर राष्ट्रीय आदोलन की दिशा और राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक संस्थाऔ के ढांचे का फैसला किया जाना था । पटेल और गांधी जी के बीच बुनियादी वफादारी और वैयक्तिक स्नेह का बंधन अंतिम क्षण तक अक्षुण्ण बना रहा है । गांधी जी के निधन के बाद, 25 नवंबर, 1948 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पटेल द्वारा दिया गया भाषण गांधी जी के साथ उन भावात्मक और जटिल संबंधों का सार था

मैं उन करोड़ों लोगों की तरह, जिन्होंने उनके आहान का पालन किया था, उनके एक आज्ञाकारी सिपाही से कुछ अधिक होने का दावा नहीं करता । एक ऐसा समय था, जब हर व्यक्ति यह कहा करता था कि मैं उनका एक अंध अनुयायी हूं; लेकिन वह और मैं दोनों जानते थे कि मैं उनका अनुसरण इसलिए करता था कि हमारी मान्यताएं आपस में मेल खाती हैं । मैं वाद-विवाद वाला और कामुक विवाद में पड़ने वाला व्यक्ति नहीं हूं । मैं लम्बी-चौड़ी चर्चाओं से नफरत करता हूं । कई वर्षों तक, गांधी जी और मैं पूर्ण रूप से एक-दूसरे से सहमत थे । अधिकतर, हम सहज रूप से सहमत हो जाते थे, लेकिन जब भारत की स्वतंत्रता के प्रश्न के बड़े निर्णय का समय आया, तो हमारे बीच मतभेद हो गया । मेरा विचार था कि हमारे लिए तत्काल स्वतंत्रता प्राप्त करना जरूरी था । इसलिए हमें विभाजन के लिए सहमत होना पड़ा । मैं बहुत अधिक हृदय-मंथन और बहुत अधिक दुःख के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचा था । लेकिन मैंने महसूस किया था कि यदि हम विभाजन को स्वीकार नहीं करेंगे, तो भारत बहुत-से टुकड़ों में बंट जाएगा और पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा । मेरे (अंतरिम सरकार मे) एक वर्ष के अनुभव से मेरा यह मत बना था कि हम जिस मार्ग से चल रहे हैं, उससे हम घोर तबाही की ओर बढ़ रहे हैं । गांधी जी का विचार था कि वे इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हो सकते । लेकिन गांधी जी ने मुझसे कहा था कि यदि मेरा मनमेरी मान्यताओं के सही होने की गवाही देता है, तो मैं आगे बढ़ सकता हूं 1 हमारे नेता (नेहरू), जिन्हें उन्होंने 'अपना वारिस और उत्तराधिकारी मनोनीत किया था, मेरे साथ थे । आज भी मुझे उस निर्णय पर पहुंचने का कोई पछतावा नहीं है, हालांकि हमने यह निर्णय बहुत दुखते मन से लिया था । '

पटेल राजनीति में गांधी जी के यथार्थवाद का प्रतिनिधित्व करते थे । उदाहरण के लिए, अहिंसा की भूमिका और 1939 में ब्रिटेन के युद्ध-प्रयासों में सहायता देने के बारे में मतभेद थे । इस बारे में भी मतभेद थे कि जब भारत एक बार स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा, तो अहिंसा के नियामक (नार्मेटिव) सिद्धांतों की तुलना में राज्य की सुरक्षा की व्यवस्था कैसे की जाए? गांधी जी इस बारे में अस्पष्ट थे कि भारतीय राज्य का गठन किस प्रकार किया जाना है, किन संस्थाओं का निर्माण किया जाना है और किन नियामक सिद्धांतों के आधार पर? चूंकि अहिंसा एक आदर्श है, इसलिए इसे शासन-कला में किस प्रकार शामिल किया जा सकता है? गांधी जी समर्थ व्यक्तियों की अहिंसा की बात करते थे, लेकिन यह प्रश्न बना हुआ था कि शक्ति की यह स्थिति किस प्रकार प्राप्त की जाए । गांधी जी ने इसका निरूपण सुस्पष्ट रूप से नहीं किया । लेकिन पटेल ने, जो शासन-व्यवस्था में शामिल थे, इसे बहुत स्पष्ट किया कि राष्ट्र की सुरक्षा की रणनीति की योजना में .अहिंसा का स्थान क्या होना चाहिए । पटेल के लिए सशक्त केंद्र और अर्थव्यवस्था के बिना अहिंसा का कोई अर्थ नहीं था; यह कमजोर के लिए नहीं थी । किंतु शासन-व्यवस्था, विशेष रूप से रक्षा और सुरक्षा के मामलों में, अहिंसा के आचरण के बारे में गांधी जी के विचार अति आदर्शवादी थे और उनके समय के पहले के थे । इसी कारण पटेल गांधी जी से असहमत थे-नीति के बारे में नहीं, किंतु कार्यनीति और व्यवहार के बारे में । पटेल का विश्वास था कि इस बारे में गांधी जी के साथ उनका मतभेद इस बात के अनुरूप था कि गांधी जी इस बात पर बल देते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को इस संबंध में चुनाव करने में अंतःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए ।

इसके अतिरिक्त, राजनीतिक वाद-विवाद की प्रक्रिया में पटेल के व्यक्तित्व के बारे में कुछ घिसी-पिटी अर्थात रूढ़ धारणाएं वन गई हैं, जो प्राय: उनके वास्तविक व्यक्तित्व और अभिप्रायों पर छा जाती हैं । उन्हें 'सरदार' की जो पदवी दी गई थी, वह उस स्थिति की द्योतक थी जो पटेल ने कांग्रेस में प्राप्त कर ली थी, अर्थात एक 'कड़ायथार्थवादी', जन आदोलन का एक प्रबल और कुशल संगठनकर्ता और एक महान अनुशासक । किंतु इन पहलुओं ने पटेल के एक कोमल और मानवीय पक्ष पर, अर्थात उनके इस रूप पर अनुचित रूप से एक अपारदर्शी परदा डाल दिया था कि वे एक ध्यान रखने वाले सहयोगी, एक वफादार मित्र और एक पितृसुलभ तथा संवेदनशील नेता थे, जो अपने कार्यकर्ताओं की आवश्यकताओं को पहले से जान लेते थे और इस बात की कोशिश करते थे कि जहां तक सभव हो, पार्टी के कार्यकर्ता लोक व्यवहार संबंधी बातों से कष्ट न उठाएं । कांग्रेस के एक कठोर व्यक्ति के रूप में उनकी जो प्रतिष्ठा थी, उससे कांग्रेस के बहुत-से नेता घबराते भी थे और ईर्ष्या भी करते थे, क्योंकि पटेल स्पष्टवादी और खरी-खरी बात कहने वाले व्यक्ति थे । उदाहरण के लिए गांधी जी ने 1933 में यरवदा जेल में अपने कारावास के दिनों में महादेव देसाई को बताया था कि पटेल को हर खरी बात अच्छी लगती है ।

पटेल मुद्दों का सामना सीधे रूप से और स्पष्टता से, बिना कोई झूठी आशाएं दिलाते हुए अथवा कोई ऊंचे वायदे किए बिना करते थे । लोग जानते थे कि जब पटेल कोई वक्तव्य देते थे, तो उनके प्रत्येक शब्द का कोई अर्थ होता था और वह कभी झांसा नहीं देते; परिणामत: वे उन पर विश्वास करते थे । उदाहरण के लिए, 1947 में राजाओं ने उन पर विश्वास किया, हालांकि वे उनसे असहमत थे । पटेल ही राष्ट्र का एकीकरण कर सकते थे । पटेल राजनीति में गांधीवादी यथार्थवाद का प्रतिनिधित्व, उसे 'पुन: एकीकरण' और वैयक्तिक लाभों से परहेज करने के मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को साथ मिलाते हुए करते थे ।

एक कड़े अनुशासक के रूप में पटेल की प्रतिष्ठा को बहुत-से लोगों द्वारा गलत रूप से, छल करने वाले, कांग्रेस संगठन पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश करने वाले व्यक्ति के रूप में समझा गया । उदाहरण के लिए, नरीमन और खरे के प्रकरणों में, उनके कड़ेपन को गुजरात और केंद्रीय भारत में अपनी पकड़ बनाए रखने के प्रयत्न के रूप में देखा गया । रामकृष्ण बजाज के अनुसार, इसके विपरीत, 'सरदार की निष्ठुरता एक अवैयक्तिक चीज थी । वह राष्ट्रीय हित में थी ।' '

इस आरोप के बारे में पटेल की प्रतिक्रिया यह थी

''हां, मुझे एक फासिस्ट कहा जाता है । मैं यह जानता हूं... मैंने नरीमन की जांच की और मेरे कहने पर कार्य समिति नै एक प्रांतीय प्रधान मंत्री (प्रीमियर) को अपदस्थ कर दिया । लेकिन हमारे पास उचित आधार थे । क्या अनुशासनिक उपाय करना फासिज्म है, जो कार्य समिति की संवीक्षा के अधीन होते हैं?

''दूसरे दिन मैं कराची में था । एक पत्रकार ने मुझसे पूछा, 'क्या आप 'अपनेआपको हिटलर समझते हो ?' मैंने उससे कहा, 'यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि लोग मुझे क्या कहते हैं । वे मुझे हिटलर अथवा महा हिटलर कह सकते हैं ।' कई दिन बाद मैंने इसका परिणाम देखा । यह मान लिया गया कि मैंने कहा है कि 'मैं न केवल हिटलर हूं बल्कि महा हिटलर हूं ।'

पटेल ने कांग्रेस के अनुशासक का लबादा अपनी पसंद अथवा अपनी मर्जी से नहीं ओढ़ा था, बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर दिया था । 1934 से 1947 तक की निर्णायक अवधि में, कांग्रेस मतभेदों, मनमुटाव और फूट की चिंगारियों से सुलग रही थी । संभवत: एक संयुक्त पट्टीदार परिवार में पालन-पोषण होने के कारण, पटेल को मतभेदों के समाधान के जरिए संबंधियों के बीच सेतु स्थापित करने की योग्यता विरासत में प्राप्त हुई थी । इसने उनके अंदर वफादारी और कुर्बानी देने के लिए तैयार रहने के मूल्य भर दिए थे, जो गांधी जी के प्रति उनके रवैए में प्रकट होते थे । उन्होंने गांधी जी के व्यक्तित्व में उन मूल्यों का प्रतिबिंब देखा, जिनके जरिए प्रतिभाशाली और सुपात्र सहोदर भाई-बहन की रक्षा की जाती है, उसे बढ़ावा दिया जाता है और प्रोत्साहित किया जाता है, जैसाकि किसी संयुक्त परिवार में होता है । इसके अनुरूप, पटेल ने विट्ठलभाई के लिए कुर्बानियां दीं और उन्होंने 1928,1936 और 1946 में गांधी जी के लिए कुर्बानियां दीं । 1936 में राजाजी के खराब स्वास्थ्य, राजेंद्र प्रसाद के नम्र स्वभाव और उनकी अनिश्चय वाली चित्तवृत्ति, साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने के प्रश्न और समाजवादी नेहरू की व्यापक जन-प्रचार में अति व्यस्तता के कारण उनके लिए, पार्टी के संगठन की ओर ध्यान देने के लिए कोई समय नहीं बचता था, मौलाना आजाद की मनःस्थिति में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव और समाजवादियों और साम्यवादियों द्वारा कांग्रेस संगठन को अपने कब्जे में लेने की राजनीति में लिप्त रहने ने पटेल को संकट में डाल दिया, जिसमें उन्हें कड़े अनुशासक का लबादा ओढ़ना पड़ा ताकि साम्राज्य-विरोधी आदोलन अपनी पटरी से न उतर जार! । उनका अंतिम ध्येय उस प्रक्रिया की रक्षा करना था, जिसके द्वारा स्वराज्य प्राप्त किया जाना था । यही गांधी जी का भी सपना था ।

पटेल की स्पष्ट और सीधी पद्धति को कांग्रेस के अंदर और बाहर के बहुत-से नेताओं द्वारा पसंद नहीं किया जाता था । समाजवादी सदस्य पटेल की 'स्पष्टवादिता' की बहुत अधिक आलोचना करते थे और इसलिए वे भ्रम पैदा करने और पटेल के बारे में गलत धारणाएं फैलाने के लिए जिम्मेदार थे । वे बार-बार गांधी जी से शिकायतेंकरते थे; यहां तक कि 1938 में गांधी जी ने स्वयं पटेल से शिकायत की थी कि-- देवदास ने आज आपके भाषण के खिलाफ शिकायत की है। उसके बाद जय प्रकाश आए और उन्होंने पी इसके बारे में बहुत दुःख व्यक्त किया । मेरा विचार है कि आपका भाषण अत्यधिक कड़ा था । आप समाजवादियों को इस तरह से जीत नहीं सकते । यदि आप समझते हैं कि यह एक गलती थी, तो आप सुभाष के पक्ष मे मंच पर जाने और बोलने की अनुमति लें ताकि उनके आसू पोंछे जा सकें और उनके चेहरे नर मुस्कान लाई जा सके । हमें पत्थर का जवाब कभी भी पत्थर से नहीं देना चाहिए। क्षमा सबल व्यक्तियों का आभूषण है । वे अपनी वाणी से दूसरों को चोट नहो पहुंचाएंगे ।

गांधी जी -यग ऐसी भर्त्सना किए जाने से पटेल को पीड़ा और वेदना होती थी, क्योंकि पटेल गर सामंतों, सापदायिकों, साम्रान्जवादियों से निपटने का जो दबाव था, और एकीकरण की प्रक्रिया में राजाओं को शामिल करने में जो परेशानी थी, उसका अनुभव समाजवादियों अथवा कांग्रेस के बहुत-से ऐसे ऐसे प्रांतीय नेताओं को नहीं था, जो गांधी जी ओर पटेल के बोघ गलतफहमी और दरार पैदा करने में लगे हुए थे । गांधी जी की सलाह के अनुसार, पटेल ने 1939 में नरेंद्र देव को लिखा

मुझे पता चला है कि आग और जयप्रकाश के मन में मेरे प्रति वैयक्तिक रूप से कुछ कटु भावनाएं हैं । मे आपको विश्वास दिलाता हूं कि मुझे अपनी ऐसी किसी बात की जानकारी नहीं है, जिसके कारण आपमें से किसी के भी मन में ऐसी भावनाएं उत्पन्न हुई हों । इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक रूप से हमारे बीच कड़े मतभेद हैं, लेकिन आप ऐसे अंतिम व्यक्ति होंगे, जो ऐसे मतभेदों से नाराज होने हैं । यह संभव है कि व्यक्तिगत संपर्क न होने के कारण किसी ने आपको गलत सूचना दी हो, जैसाकि लाहौर के अध्यक्षीय चुनाव संघर्ष के बारे में आपको गलत दाना गे गई थी और आपने मेरे बारे में अपनी राय ऐसी निराधार रिपोर्टो के अनार पर बना ली थी, जिन्हें आपने सत्य समझ लिया था । मैं आपका आभारी रहूंगा, यदि आप मुझे मेरी किसी ऐसी गलती की जानकारी दें जिससे आप मुझसे प्रसन्न हुए हों अथवा आपने मेरे प्रति ऐसी प्रतिकूल धारणा बनाई हो ।'

सरदार के लिए, राष्ट्र से तने उनकी निष्ठा सर्वोपरि थी । उन्होंने अच्छी तरह सेसमझ लिया था कि देश के शासन और राज्य के प्रबंध में, वह अपनी कुछ मान्यताओं को या तो गांधीवादी आदर्शवाद अथवा नेहरू और मौलाना की राजनीतिक मान्यताओं के साथ उनका टकराव हुए बिना, कायम नहीं रख सकते । इसलिए उन्होंने गांधी जी से प्राथना की थी कि उन्हें उनकी सरकारी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाए । उन्होंने 16 जनवरी, 1948 को गाधी जी को लिखा था कि

जवाहरलाल मेरे से अधिक बोझ उठा रहा है और वह अपनी व्यथा अपने अंदर जमा कर रहा है। हो सकता है कि अपनी बड़ी आयु के कारण, मैं उसके अधिक उपयोगी नहीं रह गया हूं । यह बात मुझे उसका बोझ हलका करने में अशक्त बना देती है, भले ही मैं उसके साथ बना रहूं । मौलाना भी मुझसे असंतुष्ट हैं और आपको समय-समय पर मेरा बचाव करना पड़ता है । मेरे लिए यह एक असहनीय स्थिति है!

ऐसी परिस्थितियों में, यदि आप मुझे मेरी जिम्मेदारियों से मुक्त कर देंगे, तो यह बात देश के लिए और मेरे लिए अर्थात दोनों के लिए सहायक सिद्ध होगी । मैं जिस तरीके से आज काम कर रहा हूं उससे भिन्न तरीके से कार्य नहीं कर सकता । यदि मैं अपने जीवन भर के सहकर्मियों के लिए बोझ और आपके लिए चिंता का कारण सिद्ध होता हूं और फिर भी अपने पद पर बना रहता हूं तो फिर मैं अपने बारे में केवल यह सोचूंगा कि मैं केवल सत्ता की लालसा के लिए वहां पर हूं । कृपया मुझे इस घृणित स्थिति से मुक्त कराएं ।

ये पत्र इस तथ्य के प्रमाण हैं कि कांग्रेस के अंदर गुटबंदी वाली राजनीति नेताओं के बीच के मतभेदों को अतिरंजित करती प्रतीत होती थी । नेताओं के बीच वफादारी के बंधन इतने मजबूत थे कि मतभेदों की शाब्दिक अभिव्यक्ति के बावजूद, पटेल ने न तो गांधी जी का कभी साथ छोड़ा, जिनके प्रति पटेल का सहज-स्वाभाविक विश्वास था और न ही नेहरू का कभी साथ छोड़ा, जिनके प्रति वे स्नेह रखते थे और जिनके साथ उनके उभयपूर्ण संबंध थे ।

इस संकलन में शामिल किए गए प्रलेखों में विभिन्न राजनीतिक, सामरिक और सामाजिक मामलों में पटेल और गांधी जी के मतभेदों और एक समान विचारों का संकलन किया गया है । इन पत्रों में पटेल और गांधी दोनों के अलग-अलग दृष्टिकोणों को व्यक्त किया गया है । लेकिन इन पत्रों से यह भी पता चलता है कि ये मतभेद उस स्थिति में नहीं पहुंचे कि इन दोनों के संबंधों में कोई दरार आ जाए । हालांकि गांधीवादी पथ से पटेल का हटने का संदर्भ गांधी जी ने दिया है, लेकिन कोई भी पत्रऐसा नहीं है, जिसमें उनके मतभेद इतने हों कि उनके संबंध बिगड़ जाएं सिवाय संभवत: शासन और देश के लिए आधारभूत संस्था बनाने के मुद्दे पर वर्ष 1947-1948 में लिखे पत्र के ।

इस संकलन में शामिल किए गए प्रलेखों में 1929 से 1947 तक की अवधि से सम्बंधित सामग्री सरदार पटेल के कागज-पत्र, अहमदाबाद; राजाजी के पत्र, नेहरू स्मारक संग्रहालय पुस्तकालय, नई दिल्ली; राजेंद्र प्रसाद के कागज-पत्र, नंदुरकर (संपा.) सरदार पटेल के पत्र-अधिकांशत: अज्ञात. अहमदाबाद; गांधी कृति संग्रह (संगत खंड); गांधी के पत्र सरदार के नाम (मूल गुजराती से अनूदित) और वालजी गोविंदजी देसाई ओर सुदर्शन वी. देसाई द्वारा संपादित, अहमदाबाद, 1957; नंदुरकर (संपा.) सरदार श्री के विसनिष्ठा और अनोखा पत्र-II (हिंदी मे), 1918-1948, अहमदाबाद, 1981 से लिये गए हैं । इनमें से अधिकांश पत्र पाठक को आसानी से उपलब्ध नहीं होते । यह संग्रह पांच भागों में बांटा गया है । भाग । राजनीतिक और कार्यनीति संबंधी मुद्दों के पत्र-व्यवहार के संबंध में है, भाग II कांग्रेस के अंदर के मतभेदों के बारे में है; भाग III कांग्रेस की आंतरिक गतिशीलता के संबंध में हे; भाग IV साम्प्रदायिक मुद्दों के बारे में; और भाग V कार्यशैली में अंतर के बारे में है । मूल पाठ के प्रति निष्ठा बनाए रखते हुए छोटी-मोटी भूल-चूकों को यथावत रखा गया है ।

 

विषय-सूची

प्रस्तावना

ix

भूमिका

xi

1

राजनीतिक मुद्दे और शासन-कला

1

अहिंसा

2

परिषद में प्रवेश का कार्यक्रम

10

किसान

21

राज और राज्य जन आदोलन

41

कैबिनेट मिशन

44

चुनाव आदोलनों का वित्तपोषण

46

राज्य निर्माण और नया भारत

47

2

सहमति के बीच असहमति

63

3

कांग्रेस में आंतरिक गतिशीलता

107

समाजवादियों के साथ मतभेद

107

पार्टी के भीतर मनमुटाव

118

चुनावों के वित्तपोषण के बारे में

127

4

सांप्रदायिक मुद्दे

135

सांप्रदायिक पंचाट, मालवीय और आंबेडकर

135

मुस्लिम लीग और खाकसार

147

विभाजन

158

जिन्ना

168

सांप्रदायिक हिंसा और शरणार्थियों के मुद्दे

171

5

कार्यशैली में अंतर

186

चुनी हुई पठन-सामग्री

197

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