पुस्तक के विषय में
प्रस्तुत पुस्तक में स्वमी निरंजनानन्द सरस्वती द्वारा सिखायी गयी यौगिक, तान्त्रिक और औपनिषदिक धारणा की अनेक संतुलित साधनायें दी जा रही हैं। इन उत्रत विधियों का गुरु-शिष्य परम्परा में सीधे सम्प्रेषण के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी शिक्षण नहीं होता था। ये साधनायें प्रशिक्षण के उच्चतर स्तर की हैं, जिन्हें आज तक सामान्य लोगों के समक्ष प्रकट नहीं किया गया है। अभी इन्हें यहाँ देने का एक कारण है कि अनेक उच्च एवं गम्भीर साधकों ने ध्यान के गहन आयामों में मार्ग-दर्शन की आवश्यकता प्रकट की है।
इस संस्करण में प्रमुख विषय हैं-धारणा का महत्व, अभ्यास की विधियों का विस्तृत कक्षा-शिक्षण-अनुदेश तथा लय धारणा की विधियाँ।
स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती
स्वामी निरंजनानन्द का जन्म छत्तीसगढ़ के राजनाँदगाँव में 1960 में हुआ । चार वर्ष की अवस्था में बिहार योग विद्यालय आये तथा दस वर्ष की अवस्था में संन्यास परम्परा में दीक्षित हुए । आश्रमों एवं योग केन्द्रों का विकास करने के लिए उन्होंने 1971 से ग्यारह वर्षों तक अनेक देशों की यात्राएँ कीं ।1983 में उन्हें भारत वापस बुलाकर बिहार योग विद्यालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । अगले ग्यारह वर्षों तक उन्होंने गंगादर्शन, शिवानन्द मठ तथा योग शोध संस्थान के विकास-कार्य को दिशा दी । 1990 में वे परमहंस-परम्परा में दीक्षित हुए और 1993 में परमहंस सत्यानन्द के उत्तराधिकारी के रूप में उनका अभिषेक किया गया। 1993 में ही उन्होंने अपने गुरु के संन्यास की स्वर्ण-जयन्ती के उपलक्ष्य में एक विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया । 1994 में उनके मार्गदर्शन में योग-विज्ञान के उच्च अध्ययन के संस्थान, बिहार योग भारती की स्थापना हुई।
विषय-सूची | ||
1 | धारणा का महत्त्व | |
2 | धारणा का महत्त्व | 3 |
3 | धारणा और विश्रान्ति | 12 |
4 | ध्यान की प्रक्रिया | 18 |
5 | आत्मिक प्रतीक | 26 |
6 | मानस दर्शन | 33 |
7 | धारणा में व्यवधान | 39 |
8 | यौगिक तान्त्रिक एवं औपनिषदिक धारणा | 45 |
9 | यौगिक एवं तान्त्रिक धारणा | |
10 | काया स्थैर्यम् | 59 |
11 | चक्र शुद्धि | 65 |
12 | अजपा धारणा | 75 |
13 | एक-सम्मुख पथ-परिभ्रमण | 83 |
14 | दो -मेरुदण्ड-पथ में परिभ्रमण | 91 |
15 | तीन-उज्जायी और खेचरी सहित | |
16 | सम्मुख पथ-परिभ्रमण | 99 |
17 | चार - उज्जायी और खेचरी के साथ | |
18 | मेरु-पथ-परिक्रमण | 105 |
19 | पाँच -आरोहण-अवरोहण-परिभ्रमण | 11 |
20 | छ: -इड़ा-पिंगला का दीर्घवृत्ताकार परिभ्रमण | 119 |
21 | सात - पिंगला-इड़ा दीर्घवृत्ताकार परिभ्रमण | 125 |
22 | आठ –इड़ा पिंगला सर्पिल परिभ्रमण | 131 |
23 | नौ - पिंगला-इड़ा सर्पिल परिभ्रमण | 141 |
24 | दस - ग्रन्थि उन्मोचन | 151 |
25 | त्राटक | 162 |
26 | एक - बाह्य दृष्टि | 171 |
27 | दो - बाह्यान्तर दृष्टि | 180 |
28 | तीन - अन्तर्दृष्टि | 195 |
29 | चार - शून्य दृष्टि | 202 |
30 | औपनिषदिक धारणा | |
31 | बाह्याकाश धारणा | 213 |
32 | अन्तराकाश धारणा | 217 |
33 | चिदाकाश धारणा | 221 |
34 | आज्ञा चक्र धारणा | 230 |
35 | हृदयाकाश धारणा | 239 |
36 | दहराकाश धारणा | 251 |
37 | एक - पंचतत्त्व धारणा (क) | 255 |
38 | दो - पंचतत्त्व धारणा (ख) | 268 |
39 | तीन - चक्र धारणा (क) | 283 |
40 | चार - चक्र धारणा (ख) | 292 |
41 | पाँच - चक्र धारणा (ग) | 300 |
42 | छ : -पञ्चकोश धारणा | 307 |
43 | सात पंचप्राण धारणा | 321 |
44 | लय धारणा | 331 |
45 | एक - मूलाधार एवं विशुद्धि दृष्टि | 338 |
46 | दो - लोक दृष्टि | 352 |
47 | व्योम पंचक धारणा | 359 |
48 | एक - गुण रहित आकाश | 360 |
49 | दो - परमाकाश | 377 |
50 | तीन - महाकाश | 384 |
51 | चार - तत्त्वाकाश | 390 |
52 | पाँच - सूर्याकाश | 409 |
53 | नादानु संन्धान धारणा | 423 |
पुस्तक के विषय में
प्रस्तुत पुस्तक में स्वमी निरंजनानन्द सरस्वती द्वारा सिखायी गयी यौगिक, तान्त्रिक और औपनिषदिक धारणा की अनेक संतुलित साधनायें दी जा रही हैं। इन उत्रत विधियों का गुरु-शिष्य परम्परा में सीधे सम्प्रेषण के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी शिक्षण नहीं होता था। ये साधनायें प्रशिक्षण के उच्चतर स्तर की हैं, जिन्हें आज तक सामान्य लोगों के समक्ष प्रकट नहीं किया गया है। अभी इन्हें यहाँ देने का एक कारण है कि अनेक उच्च एवं गम्भीर साधकों ने ध्यान के गहन आयामों में मार्ग-दर्शन की आवश्यकता प्रकट की है।
इस संस्करण में प्रमुख विषय हैं-धारणा का महत्व, अभ्यास की विधियों का विस्तृत कक्षा-शिक्षण-अनुदेश तथा लय धारणा की विधियाँ।
स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती
स्वामी निरंजनानन्द का जन्म छत्तीसगढ़ के राजनाँदगाँव में 1960 में हुआ । चार वर्ष की अवस्था में बिहार योग विद्यालय आये तथा दस वर्ष की अवस्था में संन्यास परम्परा में दीक्षित हुए । आश्रमों एवं योग केन्द्रों का विकास करने के लिए उन्होंने 1971 से ग्यारह वर्षों तक अनेक देशों की यात्राएँ कीं ।1983 में उन्हें भारत वापस बुलाकर बिहार योग विद्यालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । अगले ग्यारह वर्षों तक उन्होंने गंगादर्शन, शिवानन्द मठ तथा योग शोध संस्थान के विकास-कार्य को दिशा दी । 1990 में वे परमहंस-परम्परा में दीक्षित हुए और 1993 में परमहंस सत्यानन्द के उत्तराधिकारी के रूप में उनका अभिषेक किया गया। 1993 में ही उन्होंने अपने गुरु के संन्यास की स्वर्ण-जयन्ती के उपलक्ष्य में एक विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया । 1994 में उनके मार्गदर्शन में योग-विज्ञान के उच्च अध्ययन के संस्थान, बिहार योग भारती की स्थापना हुई।
विषय-सूची | ||
1 | धारणा का महत्त्व | |
2 | धारणा का महत्त्व | 3 |
3 | धारणा और विश्रान्ति | 12 |
4 | ध्यान की प्रक्रिया | 18 |
5 | आत्मिक प्रतीक | 26 |
6 | मानस दर्शन | 33 |
7 | धारणा में व्यवधान | 39 |
8 | यौगिक तान्त्रिक एवं औपनिषदिक धारणा | 45 |
9 | यौगिक एवं तान्त्रिक धारणा | |
10 | काया स्थैर्यम् | 59 |
11 | चक्र शुद्धि | 65 |
12 | अजपा धारणा | 75 |
13 | एक-सम्मुख पथ-परिभ्रमण | 83 |
14 | दो -मेरुदण्ड-पथ में परिभ्रमण | 91 |
15 | तीन-उज्जायी और खेचरी सहित | |
16 | सम्मुख पथ-परिभ्रमण | 99 |
17 | चार - उज्जायी और खेचरी के साथ | |
18 | मेरु-पथ-परिक्रमण | 105 |
19 | पाँच -आरोहण-अवरोहण-परिभ्रमण | 11 |
20 | छ: -इड़ा-पिंगला का दीर्घवृत्ताकार परिभ्रमण | 119 |
21 | सात - पिंगला-इड़ा दीर्घवृत्ताकार परिभ्रमण | 125 |
22 | आठ –इड़ा पिंगला सर्पिल परिभ्रमण | 131 |
23 | नौ - पिंगला-इड़ा सर्पिल परिभ्रमण | 141 |
24 | दस - ग्रन्थि उन्मोचन | 151 |
25 | त्राटक | 162 |
26 | एक - बाह्य दृष्टि | 171 |
27 | दो - बाह्यान्तर दृष्टि | 180 |
28 | तीन - अन्तर्दृष्टि | 195 |
29 | चार - शून्य दृष्टि | 202 |
30 | औपनिषदिक धारणा | |
31 | बाह्याकाश धारणा | 213 |
32 | अन्तराकाश धारणा | 217 |
33 | चिदाकाश धारणा | 221 |
34 | आज्ञा चक्र धारणा | 230 |
35 | हृदयाकाश धारणा | 239 |
36 | दहराकाश धारणा | 251 |
37 | एक - पंचतत्त्व धारणा (क) | 255 |
38 | दो - पंचतत्त्व धारणा (ख) | 268 |
39 | तीन - चक्र धारणा (क) | 283 |
40 | चार - चक्र धारणा (ख) | 292 |
41 | पाँच - चक्र धारणा (ग) | 300 |
42 | छ : -पञ्चकोश धारणा | 307 |
43 | सात पंचप्राण धारणा | 321 |
44 | लय धारणा | 331 |
45 | एक - मूलाधार एवं विशुद्धि दृष्टि | 338 |
46 | दो - लोक दृष्टि | 352 |
47 | व्योम पंचक धारणा | 359 |
48 | एक - गुण रहित आकाश | 360 |
49 | दो - परमाकाश | 377 |
50 | तीन - महाकाश | 384 |
51 | चार - तत्त्वाकाश | 390 |
52 | पाँच - सूर्याकाश | 409 |
53 | नादानु संन्धान धारणा | 423 |