पुस्तक परिचय
'आगम' शब्द का अर्थ है- आगच्छति बुद्धिमारोहति यस्मादभ्युदयनि: श्रेयसोपाय: स आगम: ! अर्थात, जिसके द्धारा इहलौकिक और पारलौकिक कल्याणकारी उपयो का वास्तविक ज्ञान हो वह 'आगम' शब्द से निरूपित होता है! वेदान्त का सिद्धान्त है की "जीवो ब्रह्रौव नापर:" "जीव ही ब्रहा है, दूसरा नही!" उसी प्रकार तन्त्र-आगमो का सिद्धान्त है- "आनन्द ब्रहाणो रूपम्" "आनन्द ही ब्रहा का रूप है!" इसी प्रकार अनेको श्रुतियां भी इसी आगम-सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है! वेदान्त के समान ही तन्त्र-आगमो के भी दार्शनिक सिद्धान्त है! वेदों में परमेश्वर परब्रहा के रूप में है! वहां पूर्ण ब्रहा कहते है " एकोहम बहुस्याम"- मैं अकेला हूं, बहुत हो जाऊ! तन्त्र-आगम में ब्रहा को शिव नाम से जाना जाता हे! सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान भगवान परमशिव स्वयं संसाररूपी क्रीड़ा करने के लिए अपनी शक्ति को संकुचित करके मनुष्य-शरीर का आश्रयण करते है-"मनुष्यदेह्माश्रित्य छन्नास्ते परमेश्वरा:" !
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त अपनी आध्यात्मिक प्रवृति एवं तन्त्र-मन्त्र जैसे गूढ विषयो में रूचि होने के कारण श्री योगेश्वरानन्द (गुरु प्रदत्त नाम) उच्च कोटि के साधक पंडित गजेन्द्र प्रसाद जी के सानिध्य में आये और उनसे आध्यात्मिक दीक्षा ग्रहण की! वही उनका परिचय स्वामी आदित्य जी से हुआ, जिनकी साधना स्थली पौड़ी में थी! अत: ज्ञान पिपाशु श्री योगेश्वरानन्द भी उनके साथ पौड़ी चले गए और उनसे साधना सम्बन्धी गूढ़ एवं विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया!
तदोपरान्त आप श्री निश्चलानन्द अघोरी के सम्पर्क में आये और उनके सानिध्य में कई साधनाएँ सम्पन्न की! परन्तु आपकी यात्रा को विराम नही मिला अतः"माँ पीताम्बरा" और "श्रीवीधा" के अद्वितीय उपासक ब्रहाचारी श्री रामस्वरूप जी के सानिध्य में आये और आज भी आप उन्ही से जुड़े हुए है!
श्री योगेश्वरानन्द जी के धारणा हे कि समाज से दूर साधना में रत रहना केवल स्वार्थ है! सच्चा साधक वही है जो समाज में रहते हुए अपने दायित्वो का निर्वहन करने के साथ-साथ मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करे!
पुस्तक परिचय
'आगम' शब्द का अर्थ है- आगच्छति बुद्धिमारोहति यस्मादभ्युदयनि: श्रेयसोपाय: स आगम: ! अर्थात, जिसके द्धारा इहलौकिक और पारलौकिक कल्याणकारी उपयो का वास्तविक ज्ञान हो वह 'आगम' शब्द से निरूपित होता है! वेदान्त का सिद्धान्त है की "जीवो ब्रह्रौव नापर:" "जीव ही ब्रहा है, दूसरा नही!" उसी प्रकार तन्त्र-आगमो का सिद्धान्त है- "आनन्द ब्रहाणो रूपम्" "आनन्द ही ब्रहा का रूप है!" इसी प्रकार अनेको श्रुतियां भी इसी आगम-सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है! वेदान्त के समान ही तन्त्र-आगमो के भी दार्शनिक सिद्धान्त है! वेदों में परमेश्वर परब्रहा के रूप में है! वहां पूर्ण ब्रहा कहते है " एकोहम बहुस्याम"- मैं अकेला हूं, बहुत हो जाऊ! तन्त्र-आगम में ब्रहा को शिव नाम से जाना जाता हे! सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान भगवान परमशिव स्वयं संसाररूपी क्रीड़ा करने के लिए अपनी शक्ति को संकुचित करके मनुष्य-शरीर का आश्रयण करते है-"मनुष्यदेह्माश्रित्य छन्नास्ते परमेश्वरा:" !
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त अपनी आध्यात्मिक प्रवृति एवं तन्त्र-मन्त्र जैसे गूढ विषयो में रूचि होने के कारण श्री योगेश्वरानन्द (गुरु प्रदत्त नाम) उच्च कोटि के साधक पंडित गजेन्द्र प्रसाद जी के सानिध्य में आये और उनसे आध्यात्मिक दीक्षा ग्रहण की! वही उनका परिचय स्वामी आदित्य जी से हुआ, जिनकी साधना स्थली पौड़ी में थी! अत: ज्ञान पिपाशु श्री योगेश्वरानन्द भी उनके साथ पौड़ी चले गए और उनसे साधना सम्बन्धी गूढ़ एवं विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया!
तदोपरान्त आप श्री निश्चलानन्द अघोरी के सम्पर्क में आये और उनके सानिध्य में कई साधनाएँ सम्पन्न की! परन्तु आपकी यात्रा को विराम नही मिला अतः"माँ पीताम्बरा" और "श्रीवीधा" के अद्वितीय उपासक ब्रहाचारी श्री रामस्वरूप जी के सानिध्य में आये और आज भी आप उन्ही से जुड़े हुए है!
श्री योगेश्वरानन्द जी के धारणा हे कि समाज से दूर साधना में रत रहना केवल स्वार्थ है! सच्चा साधक वही है जो समाज में रहते हुए अपने दायित्वो का निर्वहन करने के साथ-साथ मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करे!