ललद्यद: Lalla - A Kashmiri Saint Poetess

$24
Item Code: NZD115
Publisher: National Book Trust, India
Author: वेद राही (Ved Rahi)
Language: Hindi
Edition: 2014
ISBN: 9788123754253
Pages: 113
Cover: Paperback
Other Details 7.5 inch X 5.5 inch
Weight 130 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

कश्मीरी संत कवयित्री 'ललद्यद' ने अपनी समूची जिंदगी अपनी सोच को पूर्णतया शिव भक्ति को समर्पित कर दिया । अनेक अत्याचार सहती हुई घर-गृहस्थी को त्याग कर उसने अपने को शिव भक्ति में डुबो दिया ।

पुस्तक पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि 'ललद्यद' एक झील है जिस पर बाह्य और आंतरिक संसार कई अक्स बनाते हैं । बाह्य संसार को इन अक्सों में से छान कर देखना और उसके बिखराव और उलझाव को कविता और क्रियात्मकता में सहेजना 'ललद्यद' का चरम सीमा तक पहुंचा हुआ संघर्ष है जो इस उपन्यास में पूरी शिद्दत से उजागर हुआ है ।

पुस्तक के लेखक श्री वेद राही का जन्म 22 मई 1933 को जम्मू में हुआ । पिता लाला मुल्कराज सराफ जम्मू-कश्मीर से उूर्द अखबार 'रणबीर' निकालते थे । लेखक ने दस-बारह वर्ष की आयु से ही लिखना शुरू कर दिया था । लेखन की शुरुआत राही जी ने उर्दू से की, फिर वे डोगरी और हिंदी में लिखने लगे । उनके चर्चित कहानी संग्रहों में 'काले-हत्थ' (1958), 'आले' (1982), 'क्रॉस फायरिंग' प्रमुख हैं। उपन्यासों में झाडू: 'बेदी ते पत्तन' (1960), परेड' (1982), 'टूटी हुई डोर' (1980), 'गर्म जून' प्रमुख हैं। हिंदी के कहानी संग्रहों में 'टूटते वृक्ष नई पौध; 'सीमा का पत्थर' और 'दरार' उर्दू में 'रात और तूफान' शीर्षक से नाट्यकृति भी चर्चा में रही ।

प्रसिद्ध लेखक-निर्देशक रामानंद सागर से जुड़े रहे श्री वेद राही ने लगभग 25 हिंदी फिल्मों की कहानियां, पटकथाएं और संवाद लिखे हैं । इनमें प्रमुख है- 'यह रात फिर न आयेगी; 'पवित्र पापी: 'सन्यासी: 'बेइमान: 'कठपुतली: 'पराया धन: 'चरस' और 'पहचान' कई फिल्मों का निर्देशन भी किया जिनमें 'प्रेम पर्वत' 'काली घटा; 'दरार: 'नादानियां' प्रमुख हैं । कई टेली-फिल्मों व धारावाहिकों के लिए भी लेखन किया ।

कहानी संग्रह 'आले' को 1983 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला व देश के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित श्री वेद राही अभी भी लेखन में सक्रिय हैं ।

भूमिका

कश्मीरी भाषा की आदि-कवयित्री ललद्यद की कविता में जो गहराई और उत्कर्षता है, वहां तक पहुंचने के लिए आज भी कश्मीरी के बड़े-बड़े कवि तरसते हैं । उस शिखर की ओर लपकते तो सब हैं, परंतु वहां तक पहुंचने का सपना अभी तक किसी का पूरा नहीं हुआ ।

यह सपना साकार करने के लिए केवल शिल्प का कौशल ही नहीं चाहिए, केवल विचारों की गहराई और ऊंचाई ही नहीं चाहिए बल्कि हृदय से निकली हुई ऐसी सच्ची पीड़ा भी दरकार है जो जन-जन के हृदय को अपनी तासीर में डुबो दे और उन्हें अपना बना ले । लगभग सात सौ वर्ष पहले लल और लल की कविता का जन्म हुआ था, परंतु वह आज भी कश्मीरी लोगों के हृदयों में यों बसी है जैसे शहद में मिठास । लल के वाख कश्मीरी जीवन और संस्कृति की पहचान हैं। आज भी ललद्यद की लोकप्रियता तक न हब्बा खातून, न अरण्यमालल, न रसु मीर, न महजूर और न ही कोई और कवि पहुंच सका । इसे एक चमत्कार ही कह सकते हैं ।

ललद्यद के 'वाख' पढ़कर अनुभव होता है कि वह एक जुनूनी जोगन थी । इसी संसार में रहकर वह वही पहुंची जहां संसार नहीं पहुंचता, जहां सारे धर्म और विश्वास पीछे छूट जाते हैं । जिस ''शिव'' की तलाश में वह दर-बदर हुई, अंतत: वह भी अदृश्य हो गया और वह स्वयं भी विलीन हो गई एक शून्य में । हमारा सौभाग्य है कि उसकी कविता हम तक पहुंची और उसे पढ़कर हम यह जान पाए कि मनुष्य के जीवन को कविता कैसे-कैसे अर्थ दे सकती है ।

उस जुनूनी जोगन को अपनी देह अथवा वस्त्रों का ध्यान नहीं रहा, परंतु विचित्र बात है कि उसने जो 'वाख' रचे उनमें एक विशेष छंद भी है, लय-ताल भी है और अंत्यानुप्रास आदि भी । कविता के सभी अलंकार वहां मौजूद हैं । इसका क्या कारण है? इस आश्चर्य का कारण यह है कि वह विदुषी व ज्ञानवती थी । संस्कृत भाषा में जो शब्द संक्षेप तथा अर्थ-प्रधानता है उसका उसे पूरा अभ्यास था ।

इसी कारण जब अंतर्वेदना आनंद की लहर बनकर 'वाख' के रूप में ढलने लगती तो शैलीगत अपेक्षाएं अपने आप पूरी हो जाती थीं । उसने 'अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, उत्पलदेव जैसे लेखकों-कवियों की कृतियों का अध्ययन किया, परंतु अपनी कविता में उनका अनुकरण नहीं किया था । अपनी कविता को उसने अपनी पीड़ा में सराबोर करके अपने मन को हलका किया ताकि सांस ले सके ।

संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को छोड़कर कश्मीरी जैसी अपरिपक्व भाषा में कविता करने का उसका निर्णय बताता है कि अपनी निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ही उसने कविता का योग साधा । कविता निज की भाषा में ही की जा सकती है। कश्मीरी भाषा का सौभाग्य है कि लल के होठों से कश्मीरी 'वाख' प्रस्फुटित हुए और कश्मीरी भाषा शिखर तक जा पहुंची ।

ललद्यद की कविता पर वेदांत का गहरा प्रभाव है। उसने स्वयं एक वाख में कहा है कि वह बार-बार गीता पढ़ती है । उसके कुछ वाखों पर बुद्धमत और सूफीमत का प्रभाव भी है । परंतु सबसे अधिक प्रभाव कश्मीर के शैवमत का है। वेदांत और शैवमंत का भीतरी संबंध और दोनों के बीच जो सूक्ष्म अंतर है, वह भी उसकी कविता में दिखाई देता है ।

प्रोफेसर जयलाल कौल और श्री नंदलाल ''तालिब'' कश्मीरी ने ललद्यद की कविता का गहन-गंभीर अध्ययन करके उर्दू में उसका सुंदर अनुवाद किया है । लल की कविता के संबंध में उनका विमर्श अत्यंत सटीक है । उस अनुवाद की नींव पर वेदपाल दीप ने ललद्यद के वाखों का डोगरी में उत्तम अनुवाद किया, परंतु अपनी ओर से लल के संबंध में उन्होंने कोई राय व्यक्त नहीं की है । संभवतया अध्यात्म उनका क्षेत्र नहीं था। मैं चाहता था यह उपन्यास लिखने से पहले लल और उसकी कविता के संबंध में छपी हुई संपूर्ण सामग्री पढ़ लूं । उर्दू पत्रिका ''शीराजा'' ने ललद्यद के बारे में जो दो विशेषांक प्रकाशित किए वे मेरे लिए बड़े उपयोगी साबित हुए । उनमें मुहम्मद आरिफ बेग का लेख बहुत अच्छा था । उसमें उन्होंने कहा है कि लल के जीवन और उसकी कविता को इस संसार के हलके तराजुओं में नहीं तौला जा सकता, वह इनसे ऊपर थी, वह वहां पहुंच गई थी जहां कामिल और पागल में ज्यादा अंतर नहीं रहता । मुहम्मद यूसुफ़ टेंग ने लल की कविता की थाह तक पहुंचने का प्रशंसनीय प्रयत्न किया है । उनका मत है कि लल के वाख जिस युग की कोख से जन्मे, उस समय कश्मीर की पुरानी संस्कृति और सभ्यता एक नई संस्कृति और सभ्यता से हार रही थी । वह दौर जिस संघर्ष की तकलीफों से गुजर रहा था, उसी त्रास और यंत्रणा की परछाइयां लल की कविता में अंतर्वेदना बनी हैं । रहमान राही और शफ़ी शौक ने लल की कविता के कला-पक्ष पर विद्वतापूर्ण प्रकाश डाला हुआ है । इनके अतिरिक्त जिन प्रबुद्ध लेखकों और विचारकों के विमर्श से मैं लाभांवित हुआ उनमें बलजीनाथ पंडित, प्रो. बी.डी. शास्त्री, मोतीलाल साकी, बृज प्रेमी, रतनलाल शांत, रसुल पोंपुर, अर्जुनदेव मजबूर, काशीनाथ दर, विमला रैणा का नाम लेना आवश्यक है । इन सबके लेख पढ़कर यह उपन्यास लिखते हुए मेरा अपने पर भरोसा बना रहा ।

लल की कविता में चिंतन और भावनात्मकता का विचित्र संगम है । उसमें अंतस का गहरा संत्रास भी है और जीवन का गूढ़ विश्लेषण भी । शिव के प्रति समर्पण ने उसे जो पीड़ा दी उससे वह उन्मत्त-सी हो गई । उसके उन्माद को सहारा दिया उसकी सोच ने, विमर्श ने । उर्दू के महाकवि मीर तक़ी ''मीर'' का एक शेर है-

हम मस्त हो के देखा लेकिन मज़ा नहीं है

हुशियारी के बराबर कोई नशा नहीं है ।

ललद्यद अपनी कविता में अपने शिव के लिए होशियार, सजग और हठी है । उसे शिव का नशा है । उसके अस्तित्व का आधार यही नशा है । शिव के प्रति उसका उन्माद हिंदी साहित्य में मीराबाई के दीवानेपन के समान है । मीरा भी उस कृष्ण के लिए पागल है जिसका आज के युग में देहरूप अस्तित्व नहीं । परंतु वह उसे अपना पति कहती है, उसके लिए सेज बिछाती है, और उसे खुद को सौंपती है। यह सब कुछ उसने अपनी कविता में लिखा है । ललद्यद भी अपने एक 'वाख' में अपने प्रेमी, अपने शिव को ''मैं लल हूं मैं लल हूं 'कहकर जगाती है और उससे समागम करके पवित्र होती है । ये दोनों कवयित्रियां मानसिक रूप से जहां पहुंची थीं, वहां सांस लेना और कविता करना एक समान है । कविता के बोल मुंह से यों निकलते हैं जैसे चूल्हे पर रखी चावलों की देगची से पानी उबलकर बाहर आ जाता हे । भीतर ही भीतर जो कष्ट है जो, पीड़ा है उससे कभी छुटकारा नहीं मिलता । उसे सहन करते हुए ही सांस लेनी पड़ती है । सांस आरी के समान दो फाड़ करती रहती है, और जो चीखे निकलती हैं उसे कविता कहा जाता है । पंजाबी के महान सूफी कवि बुल्लेशाह ने कहा है कि जिनकी हड्डियों में इश्क रच-बस जाता है, वे जीते जी मर जाते हैं । ललद्यद भी कहती है, शिव और शक्ति के समागम देखकर मैं अमृत की झील में डूब गई, मैं जीते जी मर गई । क्या अमृत की झील में डूबकर भी कोई मरता है? यहां लल की कविता अपने उत्कर्ष पर है ।

इस उपन्यास में जितनी घटनाएं हैं, उनमें से कुछ को लल के वाखों में से ढूंढ-ढूंढकर निकाला गया है, और कल्पना द्वारा उनको विस्तार दिया गया है । कुछ घटनाओं को लोकोक्तियों से उलीचा गया है। हर घटना का कहीं न कहीं कोई संकेत है । बहुत ही कम सामग्री ऐसी है जो कथा को आगे बढ़ाने के लिए परिकल्पित की गई है । कथा को आगे बढ़ाते समय लल का संपूर्ण चित्र हमेशा मेरे समक्ष रहा है । इस सत्य को यों भी कहा जा सकता है कि वाखों की नींव पर लल के चरित्र ने इन घटनाओं का निर्माण करने के लिए मुझे प्रेरणा दी और इन घटनाओं ने छैनी और हथौड़े के समान लल के चरित्र को मूर्त्तिमान किया । इस सारी प्रक्रिया को इतिहास की पृष्ठभूमि ने अपना समर्थन दिया है । यदि यह समर्थन न मिलता तो सत्य का चेहरा इतना उजला न होता।

यह उपन्यास लिखते हुए मैं उन मुकामों से गुजरा, जहां से गुजरकर एक साधारण माता-पिता की पुत्री, एक साधारण सास-ससुर की बहू और एक साधारण पति की पत्नी उस शून्य तक पहुंची, जहां कुछ नहीं सिवाय शून्य के । वहां तक पहुंचने की प्रक्रिया का बखान करते हुए, क्या बखान करने वाले को भी उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है? क्या वह भी उस शून्य तक पहुंच जाता है? यह बड़ा कठिन प्रश्न है । यह तो केवल अनुभव का क्षेत्र है । कोई पूछ सकता है कि क्या आग का वर्णन करते हुए कोई जल जाता है? सभी लेखकों का अपना अपना अनुभव है । मेरे मन में इतना लालच अवश्य था और इच्छा थी कि मैं उस प्रक्रिया से गुजरूं, जिसमें से लल गुजरी थीं । परंतु मैं उसमें कितना डूबा, इस संबंध में मैं कुछ नहीं कह सकता। यह तो एक यत्न था अपनी इच्छा को पूरा करने का । बीच-बीच में आनंद के उन क्षणों का अनुभव भी हुआ, जिनके बारे में कभी सोचा नहीं था । मेरे इस श्रम का पुरस्कार वही कुछ क्षण हैं।

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