हजारीप्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध: Collected Essays of Hazari Prasad Dwivedi

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Item Code: NZD145
Publisher: National Book Trust, India
Author: नामवर सिंह (Namawar Singh)
Language: Hindi
Edition: 2021
ISBN: 9788123705347
Pages: 142
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 170 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

हजारीप्रसाद द्विवेदी (जन्म 1907) हिंदी साहित्य के इतिहास मे एक नयी परंपर के अन्यतम हस्ताक्षर हैं । ये लंबे समय तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय और शांति निकेतन सै संबद्ध रहे । अनेक प्रतिष्ठित सस्थाओ के सम्मानित अधिकारी रहे और विभित्र उपाधि??' से विभूषित हुए । हिंदी साहित्य के अविच्छित्र विकास परंपरा मे इन्होने समीक्षा को एक नयी दिशा दी । द्विवेदी जी कें निबंधों मे अत्यंत मामूली बात भी तर्क और वर्णन के संयोग से बड़ी बात हो जाती है । गहन-गंभीर और दर्शन-प्रधान बात भी यहा मनोरंजक और सहज सरल, सुबोध हो जाती है । इनका रचना संसार बहुत विशाल है । इन्होने जो कुछ भी लिखा उच्च श्रेणी का लिखा प्रस्तुत पुस्तक में इनके ऐसे निबंधों को संकलित किया गया है जो संक्षेप मे पाठकों कौ इस कालजयी रचनाकार का परिचय दे सके।

संकलन के संपादक प्रो० नामवर सिंह (जन्म 1927) हँ । इन्होंने कविता से अपना साहित्यिक जीवन आरंभ कर मुख्य कार्य-क्षेत्र आधुनिक साहित्य की आलोचना को बनाय'! साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा शलाका सम्मान पुरस्कार के अतिरिक्त अन्य कतिपय सरकारी, गैरसरकारी संस्थाओ द्वारा समय-समय पर सम्मानित हुए । जनयुग तथा आलोचना का संपादन कर इस क्षेत्र मे भी एक मानदंड स्थापित किया ।

भूमिका

हजारीप्रसाद द्विवेदी काशी के पण्डितों की उस लुप्तप्राय परम्परा में अन्यतम हैं जिसे समावतार शर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी राहुल सांकृत्यायन जैसे तेजस्वी पण्डितों ने बीसवीं शताब्दी तक जिलाए रखा और जिससे हिंदी चिन्तन-सृजन को पुनर्नवता प्राप्त हुई। जिसे आज हम 'आधुनिकता' कहते हैं वह इसी पुनर्ववता' का प्रण नाम है और आश्चर्य नहीं कि इसमें किसी-किसी को तथाकथित उत्तर-आधुनिकता' का भी पूर्वाभास मिल जाय! पुनर्नवा' हजारीप्रसाद द्विवेदी के एक उपन्यास का नाम ही नहीं, उनके समस्त रचनाकर्म का बीज शब्द है । वस्तुत: कालिदास के क्लेश: फलेन हि पुनर्नवतां विद्यत्ते' को द्विवेदीजी ने एक नये अर्थ के साथ पुनर्जीवित किया। कालिदास की अनुगूँज वैसे भी उनके रचना-कर्म में अक्सर सुनाई पड़ती है; किन्तु पुनर्नवा' में तो वे अपनी सर्जनात्मक वेदना को व्यक्त करने के लिए चन्द्रमौलि के रूप में कवि-कुल गुरु को अवतरित ही क्य देते हैं और अपनी इस कल्प-सृष्टि के मुख से इन शब्दों में फूट पड़ते हैं :

'मेरे निजी मानस की विक्षुब्धता केवल मेरे ही मानस में अैटती है । संसार में सर्वत्र उसके किसी-किसी अंश का साम्य मिलता है। हर पेड़-पौधा कुछ--कुछ उसका आभास दे जाता है, पर एकत्र वे साम्य अगर कहीं ठीकठीक विद्यमान हैं तो केवल मेरे मन में ही। उसे बाहर की रूप-सामग्री के माध्यम से किसी प्रकार पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता: शब्द उसे क्या प्रकट करेंगे!''

वैसे, यह एक प्रकार से हत्रैकत्र क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति की ही व्याख्या है, किन्तु यह व्याख्या भी कैसी अपूर्व है! स्वयं द्विवेदी जी को देखकर भी यही कहने को जी चाहता है: एक जगह कहीं भी तुम्हारा सदृश्य नहीं है । नहीं किसी में तेरी समता! मूल कारण है मानस की वही विक्षुब्ता-अपूर्व सर्जनेच्छा, जिसका ठीक-ठीक साम्य अगर कहीं है तो स्वयं सर्जक के मन में । वैसे, अभिव्यंजना के लिए अनेक प्रकार के रूप सुलभ हैं : कविता के अलावा गद्य में कहानी है, उपन्यास है और निबंध भी। किन्तु इनमें से किसी बने-बनाए रूप' में वह सर्जनेच्छा द्विवेदीजी को अँटती नहीं दिखाई देती। या लिखने को उन्होंने चार-चार लम्बी क्याएँ लिखीं जिन्हें उपन्यास कहकर छापा गया और 'अशोक के फूल' जैसी दर्जनो छोटी गद्यकृतियाँ भी, जिन्हें ललित निबंध के नाम से बखाना गया। लेकिन क्या वे ठीक-ठीक उपन्यास ' या निबंध ही है? कितने ही निबंध ऐसे है जिनके अंदर कोई--कोई कहानी पिरोई हुई है और उपन्यास तो सभी ऐसे हैं जिनके बीच-बीच में भरे-पूरे निबंध रचते चले गये हैं । आखिर चिर परिचित विधाओं-में यह गड्डमड्ड क्यो? न उपन्यास ठीक-ठीक उपन्यास और न निबंध ठीक-ठीक निबंध! क्या यह भी कोई पुनर्नवता है- पुनर्नवा विधाओं की दिशा मे एक प्रयास?

स्वयं द्विवेदीजी का ऐसा कोई दावा नहीं है । अपने खास अंदाज़ मे वे इन सबको 'गण ' कहते हैं । उनके अभिन्न व्योमकेश शास्त्री का यह कहना गलत नही कि गण मारना कोई आपस सीखे। व्योमकेश शास्त्री तो यह भी बताते हैं कि जब आप नीरस कामो से थक जाते है तो गप्पो की रचना मे विश्राम पाते हैं । 'नीरसकाम' अर्थात् शोधपरक निबंध जैसे 'प्राचीन भारत के कला-विनोद' या नाथ सम्प्रदाय ' । इनकी तुलना में 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और 'अशोक के फूल' निश्चय ही 'गण' है । विडम्बना यह है कि आचार्यश्री जिन रचनाओ को गप्प' कहते हैं, वही सबसे अधिक हद्य हैं और मूल्यवान भी । किसी-किसी निबंध में तो 'गण ' वाला हिस्सा ही सारवान प्रतीत होता है, बाकी तो गुरु गंभीरता के बावजूद घिसा-पिटा ही लगता है, जैसे अर्थार्षवाक् शीर्षक निबंध जो मूलत : एक भाषण है । अट्ठाइस पृष्ठों के इस लम्बे भाषण की आरंभिक भूमिका के दो पृष्ठों को छोड़कर बाकी छब्बीस पृष्ठ बहुत-कुछ घिसी-पिटी बातों से ही अटे पड़े हैं जिनमें द्विवेदी जी कहीं नहीं हैं । द्विवेदीजी दिखते हैं तो उस भूमिका में जहाँ वे अपने गावदीपन का बखान करने के लिए भूख की ओट लेकर एक गय मारते हैं। विचित्र बात है कि इस मज़ाकिया गय में ही वे 'आर्षवाक्' से भिन्न 'अर्थार्षवाक् ' जैसे गहन तत्व का संकेत भी दे जाते हैं जिसे सुनकर बौद्धदर्शन के पण्डितों को भी स्वीकार करना पड़ा कि इससे पहले उन्होंने यह शब्द न सुना था।

गरज कि द्विवेदीजी की अपनी विधा यह गप्प' ही है, गप्प ' नहीं, कोरी गप्प। तत्सम नही, तद्भव। कुछ भिन्न अर्थ व्यंजक। कुछ कुछ कल्प' के निकट। शायद । स्वयं द्विवेजीजी ने कही इसका खुलासा नहीं किया । कहीं कहीं झलक जरूर दी । जैसे देवदारु ' शीर्षक निबंध में । देवदारु की लकड़ी से भूत भगाने वाले पंडित जी की कहानी सुनाने के बाद सहसा गंभीर होकर द्विवेदीजी 'गप्प' की महिमा बखानने लगते हैं । शब्द इस प्रकार हैं: ''आदिकाल से मनुष्य गप्प रचता आ रहा है, अब भी रचे जा रहा है । आजकल हम लोग ऐतिहासिक युग में जीने का दावा करते हैं। पुराना मनुष्य मिथकीय 'युग मे रहता था, जहाँ वह भाषा के माध्यम को अपूर्ण समझता था, वहाँ मिथकीय तत्वो से काम लेता था। मिथक- -गप्पे-भाषा की अपूर्णता को भरने का प्रयास हैं । आज भी क्या हम मिथकीय तत्वों से प्रभावित नही हैं? भाषा बुरी तरह अर्थ से बँधी हुई है । उसमे स्वच्छंद संचार की शक्ति क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है । मिथक स्वच्छंद विचरण करता है । आश्रय लेता है भाषा का, अभिव्यक्त करता है भाषातीत को । मिथकीय आवरणों को हटाकर उसे तथ्यानुयायी अर्थ देने वाले लोग मनोवैज्ञानिक कहलाते हैं, आवरणों की सार्वभौम रचनात्मकता को पहचानने वाले कलासमीक्षक कहलाते हैं । दोनो को भाषा का सहारा लेना पड़ता है, दोनो धोखा खाते हैं, भूत तो सरसों मे है । जो सत्य है, वह सर्जना शक्ति के सुनहरे पात्र मे मुँह बंद किए ढँका ही रह जाता है । एक-पर-एक गप्पों की परतें जमती जा रही हैं। सारी चमक सीपी की चमक में चाँदी देखने की तरह मन का अध्यास मात्र है। गण कहाँ नहीं है, क्या नहीं है?''

मगर छोड़िए भी' कहकर द्विवेदीजी ने इस गंभीर तत्त्व का उपसंहार कर दिया। लेकिन इस वक्तव्य को स्वयं द्विवेदीजी के रचना संसार पर लागू करें तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि उनकी रचनाओं मे गण कहाँ नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि जो कुछ है सब गण ही है । आखिर गण क्या नहीं है' का और अर्थ क्या होगा? इस दृष्टि से 'अशोक के फूल' और शिरीष के फूल' तो गण हैं हीं, आम, देवदारु और कुटज भी गण ही हैं। गप्प इस अर्थ में कि इनमें से प्रत्येक को लेकर एक मिथक ही तो गड़ा गया है! कही पुराने मिथक का अर्थानुसंधान करते हुए एक नये मिथक की सृष्टि और कहीं पुतने मिथक के सहारे एक नये इतिहास की रचना!

इस बात को लेकर मेरे मन में बराबर एक कुतूहल रहा है कि कल्पलता पर कोई निबंध लिखे बिना ही द्विवेदीजी ने अपने एक निबंध-संग्रह का नाम कल्पलता ' क्यों रखा? क्या वे निबंध मात्र को 'कल्पलता' समझते थे। कल्पवृक्ष नहीं, कल्पलता। लता में जो खुल कर फैलते जाने की स्वच्छंद वृत्ति है, वह वृक्ष में कही! कल्प का कोई भी संबंध कल्पना से है तो फिर कल्पना की लता ही हो सकती है, पेड़ नहीं जो एक जगह खड़े रहने के लिए अभिशप्त है और मस्ती के आलम में खड़े खड़े झूमने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता।

जो हो, इतना तो साफ है कि द्विवेदीजी को कल्पलता' बहुत प्रिय थी। द्विवेदीजी के प्रिय कवि कालिदास को भी कल्पलता बहुत पसंद थी। 'अभिज्ञान-शाकुंतल' के इस छंद में कल्पलता जिस साज-सभार के साथ आई है उसे पढ़ने के बाद उसके उपयोग का लोभ संवरण कौन कर सकता है।

 

विषय-सूची

भूमिका

सात

1

अशोक के फूल

1

2

शिरीष के फूल

7

3

कुटज

10

4

देवदारु

16

5

आम फिर बौरा गये!

24

6

वसन्त आ गया है

31

7

नाखून क्यों बढ़ते है?

34

8

जबकि दिमाग खाली है

39

9

शव-साधना

41

10

ठाकुरजी की बटोर

44

11

बरसो भी

53

12

क्या निराश हुआ जाय?

55

13

भीष्म को क्षमा नहीं किया गया!

59

14

एक कुत्ता और एक मैना

64

15

व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारीप्रसाद द्विवेदी

68

16

मेरी जन्मभूमि

71

17

भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या

76

18

मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है

84

19

कबीर : एक विलक्षण व्यक्तित्व

97

20

मेघदूत : एक पुरानी कहानी

111

21

अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल!

118

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